रविवार, अक्तूबर 29, 2017

भूख

रोज साँझ के चूल्हे पर
धधकती है थोड़ी आग..
जलती है रूह और
खदबदाती है थोड़ी भूख...
यह भूख पेट और पीठ के समकोण में
उध्वार्धर पिचक गोल रोटी का रूप धर लेती है..

इस रोटी के जुगत में
बेलन और चकले का समन्वय बस इतना होता है कि..
ऐंठती पेट में निवाले की दो कौर से
अहले सुबह रिक्शे द्रुत गति से दौड़
फिर किसी ज़हीन को खींच रहे होंगे...

रोटी

फुटपाथ के एक कोने में अरसे से पड़ा वह बूढा
रोटी की फिलासफी का शोध छात्र सा था..
वह था जो रोज रोटी की बात करता था...
सपनों में तस्वीरें भी उसकी गोल रोटी की होती थी...
उसके इर्द गिर्द बिखरे पन्नों में
नारे भी कई थे लिखे हुए रोटियों पर...
उसके लिखे हुए आड़ी तिरक्षी लकीरों में
भूख का ही प्रमेय और उपप्रमेय सिद्ध होता था..
पर आज कुछ उल्ट हुआ था
भूख से उथले पेट... उल्टा
आँखे तरेर टकटकी लगाए
चंद्रमा की परछाई में रोटी का परावर्तन ढूंढ़
फर्श पे दो शब्द उकेरे थे उसने "रोटी"....
शायद रोटी और भूख के प्रमेय में
मरने से पहले लिखे दो अक्षर
उसी रोटी की निर्लज्ज आहुति थी वहां...!!

     

बुधवार, अक्तूबर 25, 2017

स्त्री कोख का उपसंहार

मैं स्त्री कहता हूँ..
तुम देह सोचते हो..
मैं देह कहता हूँ..
तुम विमर्श लेकर खड़े हो जाते हो..
पुरुष और परम्परा के हवाले के साथ..

दरअसल यह देह है क्या..?
तुम्हारा ही रचा-गढ़ा प्रपंच ही तो है..?
स्त्री के सुहाग सौदर्य के निमित्त
स्त्री के लिए
खींची गयी कोई नपुंसक रेखा ..
पितृक पुरुषोक्त परम्पराओं के नाम पर स्त्री..?
और सृजन के नाम पर देह...क्यों..?

तुम कहते हो जड़ता है स्त्री..
और चैतन्य है देह..
जड़ और चैतन्यता के बीच फिर क्या..?

अपनी मनमर्जी से गढ़
थोप देते हो नियम दूसरे के माथे..
स्त्री से क्षणिक सुख और देह की पिपासा में..

स्त्री की स्वच्छंदता में भी
मौलिक जड़ता चाहते हो तुम....
क्यों आखिर..?

देह में सृजन के उच्छवास देख
ऋचाओं के गीत और हल्दी के उबटन में
कर देते हो सौदा..
मेरे देह का ही तो...???
स्त्री को मान्यताओं और रिवाजों में गूथ
सिर्फ इस लिए चौखट में बांध आते हो हमें..
ताकि स्त्री और देह के दर्प को रौंद सके बलशाली हाथ..
दरअसल वो बलशाली हाथ नहीं है
अबलों की कुंठा की
भरभरायी हुई जमीर का टूटन अंश है सुहाग के देह का रौंदना...
स्त्री को शास्त्रों और मिथकों में बांध
जीवनपर्यन्त की जिस गुलामी में बांध रखे हो न...
अब वह उन्मुक्त हो बदल रही है मान्यताएँ...
जब तुम देह की बात करते हो
तो घृणा से भर जाता हूँ मैं...
जब जना तो बच्ची के देह की परिभाषा अलग गढ़ी...
कैशोर्य हुई तो और अलग ...
मेरे युवापना में
मेरे जिस्म की मादकता को देख
देह-त्रिभुज के तिलिस्म में उलझा
मुझे स्त्री भी कहाँ रहने दिया तुमने..??
देह को सौंप स्त्री बना...
रौंद कर माँ बनाने की जिस प्रक्रिया के तेरे शास्त्र समर्थन करते है न...?
आज थूक रही हूँ उसपर मैं...

जटाजूट के लिंग पर
हर उस स्त्री का स्पर्श
उस देह का मान मर्दन है...
अतः आज मैं एक स्त्री के नाते
उस पोषित शपथ का प्रतिकार करती हूँ...
उस पलित परम्पराओं का प्रतिकार करती हूँ..
स्त्री के शापित शरीर की छिन्मस्तिका का उपहास करती हूँ...
जिसके उपसंहार में स्त्री कोख का पुंसवन है...

राकेश पाठक

अरण्य में स्त्री

मैं अरण्य की धुंध हूँ..
मैं हूँ तेरे प्रार्थना की आहुति..
मैं ज्ञागवल्लक की स्मृति हूँ..
और अहिल्या का श्राप..
अंधेरी गुफाओं में उकेरी हुई आयतें
एलोरा की यक्षिणी
खजुराहो की सृजनी.
भरतनाट्यम की एक मुद्रा लिए दासी
सूथी हुई कंदराओं का तिलस्मी स्याह पक्ष भी..
बुद्ध और आनंद का उन्माद हूँ मैं..
जो व्यक्त हुआ था धम्म के चवर में..
विपश्यना का अथर्व रखे
यज्ञ की वेदी हूँ..
धधकी हुई हवन कुंड हूँ..
होम की हुई धूमन गंध...
समिधा की लकड़ी..
जिह्वा से अभिमंत्रित शब्द
सस्वर उच्चारा हुआ मंत्र ...
भिक्षु को मिला दो मुट्ठी अन्न..
कान में दिया हुआ गुरुमंत्र..
उंगलियों में सिद्ध हुआ ऊं ओह्म
आंखों के परदे से हटा कर देखो यह तिलिस्म
कुंड की अग्नि में एक और आहुति दी है हमने भी ईश्वर..!!