बुधवार, अप्रैल 26, 2017

मेस आयनक

मेस आयनक..
---------------------
यह कांधार है..
जहाँ जमीं में बुलबुले नहीं है..
न फ़ाख्ता की चहचह
न सोन चिरैया के गीत..

है यहाँ सूनापन अथाह सरकटी का..
दबी है बारूद की सुरंगे और वाहियात सपनें
दबी है उन सुरंगों में लिजलिजाते हुए अवशेष..
उन आतातायियों के..
जिन्होंने धर्म को क्रुसेड से जोड़
फूंक दी थी मानवता
उस सूर्ख़ हो चुकी मिट्टी में..
मजहब की मकतीरे नहीं रही थी सिर्फ
है भग्नावशेष एक समृद्ध इतिहास का...
जेहाद के नाम पर फूकीं गयीं
भग्नावशेषों में अब भी अश्वश्थ की तरह खड़े थे अहिंसापों के दर्प..
जिसके अस्तित्व में बोध का सौंदर्य था..
और ध्वनि रंध्रों में संघ शरण के वक्तव्य..
विहारों में दबे पड़े थे
यान परम्पराओं की ऋचाएँ
अहिंसा के ये बीजतत्व
अब ध्वस्त कर दिए गए थे..
वामियानों में लगी बारूद की शिराओं का एक कोना..
इस कांधार के ध्वनाशेष की नींव है.
सूर्ख़ मिट्टी में उगे बबूल पर
रक्त की चिश्तिया चिपचिपा रही थी..
कहीं नहीं थे मुस्कुराते बुद्ध..
पुरातत्ववेदा की सनक में ढूंढी गयी
"मेस आयनक" का इतिहास
ढूंढे गए इस शहर में अंहिसा के गहरे रक्त थे..
जैन अस्तित्ववादियों के णमो ओंकार
और बुद्ध के मुस्कुराते मुख़ौटों का
पूरा आगत अवशेष था बिखरा हुआ यहाँ...
तथागत के प्रहसन के बीच
गिरते थे बाबा वली पर्वत के छोरो,ढलानों से
संघ,शरण, शरणागत के उच्छवास ....

वही पर निकलता है लसलसा चिपचिपा
बैंगनी,नीले, हरे रंग का थोथा..
इस तांबे के तूतिये में
मोगलम पूजा के बीज भी थे
जिसके हौले से छन्न की आहट से
खिलखिला उठते थे बुद्ध..
आज वहाँ बन्दूकों की दस्तरख़ाने बिछी थी..
जलायी जा रही थी जिस्मानी रूह..
चीख़ रही थी उम्मीदें बचपन की.
इस शेष,अवशेष, भग्नावशेष के बीच भी
ढूंढ दी गयी थी एक 'मेस आयनक'
एक बौद्ध नगर..
क़ातिल आवाजों के बीच
एक पागल पुरातत्ववेदा द्वारा..

राकेश पाठक

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें