रविवार, सितंबर 10, 2017

दो कविताएँ सृजन और प्यार की

                          1

उस नवजात के पैरों में पीले फूल गुदे थे...
और हाथों में मोरपंख...
जब उसने पैर उठाये थे ...
सरसराती हवा का रंग भी पीले फूल सा खिल गया था..
जब हाथ हिलाएं तो व्योम में बादल प्रेमगीत गाते हुए विहँस रहे थे..
जब मुस्कुराया तो सबकुछ रुक गया था..
यहां तक ईश्वर का मौन भी..
सृष्टि जब जब सृजन का गीत गाती है
सबकुछ थम जाता है श्री..

              2
मेरे हाथ कुछ भी नही थे
काया के अंतरण का शून्य भी मैंने निर्वासित कर दिया था
हर एक उच्छवास के साथ
एक पल और मुक्त रहा मैं
पर रूह को भरने की एक आर्त पुकार
रोज सुनता था...
कानों के परदों में इस गूंज की गुनगुनाहट से
रोज़ ही निर्वासित करता था खुद को.
एक दिन मैंने ही कहा था...भर दो अगाध मेरे भीतर ये सब..!
उन्होंने शब्दों, ध्वनियों, आह्वानों की एक नदी छोड़ दी..
तंत्रों, मंत्रो, कापालिकों का तर्जन छोड़ दिया..
गीत, गात्र-उदगात, संगीत का तर्पित अवोहम छोड़ दिया.
पंडित और मौलवी से दीक्षित वह परम्परा भी छोड़ दी
संग, उत्स, त्योहार का दीक्षांत भी छोड़ दिया..
गेहूं, गुलाब, ज्ञान का सौभाग्य भी छोड़ दिया..
कनेर, कंसूल, गुलाब में जो जीवन ढूंढ़ा था मैंने
उसे भी उसी गंगा में समूल उसी दिन छोड़ दिया था
जिस दिन परम्परा के नाम पर मेरे अभिमानों को रौंद दिया था तुमने..
सुनो मैंने सब छोड़ा सिवाय प्रेम के..
प्रेम की सिवाय कुछ भी नही मेरे पास..
बारिशो के फुहार से आज भी भर जाता हूँ मैं..
रूहानी हवाओं से मेरे गीले मन आज भी ऊष्मा से तर जाते है..
पश्चिम से आती हर हवा में भरी हुई मादकता के साथ
आज भी प्रेम से ही भरा हुआ रहता हूँ मैं सखी..

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