शनिवार, अक्तूबर 30, 2010

ग़ज़ल

                    ग़ज़ल
जीवन के फलसफे को पढना नहीं आया
दोस्त तेरे संग संग चलना नहीं  आया

गुजरा था कभी संग बचपने फकीरी में
वक्त बदलते ही पहचानना नहीं आया 

रहमतो की बारिश से तू बन बैठा अमीर
कह गए अबतक जीने का सहुर नहीं आया

इब्तिदा किये थे  सजदा करेंगे साथ साथ
छोड़ गए तनहा कहा रब में डूबना नहीं आया

फरमाबदार बनकर बैठे थे कलतक एक- दुसरे के
नेवला खीच कहते हो दर पे कोई भूखा नहीं आया

लिखता रहा वर्षो तलक तेरी दोस्ती के किस्से
सरेआम कह गए तुझे यारी निभाना नहीं आया

खंजर उतार सिने में लहूलुहान कर गए
बहते इन अश्को को रोकना नहीं आया

कुचले है सर राम रहीम के इस कदर
शेखेहरम बन बैठकर रोना नहीं आया 

दरिंदगी ने ने सुखा दिए अश्क मेरे इसकदर
की मुजस्समा बन बैठ मुझे हँसना नहीं आया

रोती रही राते  चीखती रही दीवारें
धमाकों की आवाज में सोना नहीं आया
  
कभी सहन में जमती रही थी महफिले रात भर
दरबदर हो गए "राकेश " से कोई मिलने नहीं आया

लिखता रहा आजीवन सभी धर्मो के मुखड़े
कह गए दोस्ती का ग़ज़ल लिखने नहीं आया

 कायनात से रुखसती का इसरार किये बैठे है
दोस्त तेरे बिना अबतक मरना नहीं आया

शनिवार, अक्तूबर 23, 2010

.टटोलती यादें

कविता मेरे मौन की अभिव्यक्ति है. विचारो की शक्ति है. मेरे अन्दर विचारो के पुतले जन्म लेते रहते है .कुछ अपने भ्रूण अवस्था में ही दम तोड़ इहलीला को प्राप्त हो जाते है तो कुछ शैशवा अवस्था में ही मेरे विचारो से विदा ले लेते है. पुतले के जन्म के इस संघर्षों में कुछ विचार जदोजहद करके मेरे से यदाकदा कुछ लिखवा पाने  के स्रोत्र बन जाते है....और चंद शब्द -सृजन के तब अभिव्यक्ति बन, कविता का रूप धर लेते है, जब विचारों का आत्मसंघर्ष पुतलो के रूप में नृत्य-लीला कर अभिव्यक्ति का नट-भैरव करने लगता है....कविता मेरे इर्द गिर्द फैले जड़ता से भी बुनी जा सकती है तो कभी समाज की विसंगतियां इसके कारक बन, तेवर के कुछ चीजे लिखवा पाने में सफल हो जाते है..
अकेलेपन का साथी होना भी मेरे सृजन की नींव है...कविता कभी रात में मुझे उठाकर झंझोरती हुई कहती है लिखो मुझे ...बुनो रिश्तो का तारतम्य भी सृजन का गवाह बन जाता है यह कविता भी ऐसी ही लिखी गयी थी खुद को टटोलने का एक विखरा
प्रयास .............


हम अक्सर आईने के
सामने खड़े होकर
खुद को टटोलते है, ढूंढते है
देखते है, अपना अतीत
और ऐसे, मानो
कोई खोयी हुई चीजे
पुनः प्राप्त होने को है
हम नित्य कुछ खोते है
और ढूंढते भी
ताकि समय की गर्द में
हम भूल न जाये की
हमें याद क्या करना था ?

नयी चीजे प्रवेश करती है
पुराने को धकियाते हुए
और पुरानी होती हुई
धूल का एक गुबार
इसे अदृश्य सा कर देता है
और हम फिर भूलने लगते है !!!
की अचानक ही
सुनहरी यादों का झोंका
गर्द गुबार को उड़ाते हुए
वक्त को हाथ में कैद कर देता है
और हमें याद हो आता है
जज्बातों को समेटे...
अतल समुद्र में धीरे धीरे
सूर्यास्त के साथ डूब जाना ?????

गुरुवार, अक्तूबर 21, 2010

शूली पर भगवान

आस पास व्यापत कई चीजे आहत करते रहती है ये व्यथा कविता बनकर पन्नो पर उतर आती है

शूली पर भगवान
कुछ गाओं गुनगुनाओं एक कविता सुनाओ
देश पर ,समाज पर,
लाश ,सरकटी के फैले व्यापार पर
सत्ता गहते लोगो के लोलुप अधिकार पर या
राजनीती में फैले---डूबे आकंठ भ्रष्टाचार पर .......
सुनाओ किसने उतारी ये गाँधी जी की धोती
चश्मे और डंडे की कैसी लगी बोली ??
खादी और खाकी के रहते
नंगे होते बापू पर
बोलो तुम कुछ कह पाओगे???
या गोडसे बनकर के तुम भी बन्दूक चलाओगे????

कलम भी हुई कमीन अब
लोकतंत्र हुई गमगीन अब
बंधक बन गए लोकतंत्र पर
क्या कविता कोई गाओगे ???
या मेज़ थपथपाकर संसद में
कौरव की सरकार बनौगे ???
संसद में ताकत के दम पर
जीत रहे बेईमान है ....
नाज़ नाक को ताक पर रखकर
बेच रहे हिंदुस्तान है ....
इन चोरो को नंगा कर दे
क्या ऐसी कविता गाओउगे ????
आज गांवों में फैला सन्नाटा
दुश्मन बनकर भाई ने लुटा
जात धर्म के परदे में
हमने राम -रहीम को लुटा
जनतंत्र है बनी बेचारन
बंधक बनकर खादी की .
बंधन से ये मुक्त हो जाये
क्या ऐसी कविता गाओगे ????
हिंसा के दलदल में डूबा
लोकतंत्र शर्मशार है
व्यभिचारो की मंडी में
नित होता नया व्यापार है
कब तक युही लटकाओगे ??
शूली पर भगवान को........
कलयुग का रावण मर जाये
क्या ऐसी कविता गौओगे ????
नेताओं के इस नगरी में
धूर्तो का बोलबाला है
कपटी काटे फसल झूठ की
कंस यहाँ रखवाला है
मिले कंस से त्राण हमें
क्या ऐसी कविता गौओगे ?????
क्या ऐसी कविता सुनौगे ?????