शुक्रवार, नवंबर 26, 2010

आतंकवाद

आज से दो साल पूर्व आतंकवादियों  ने मुंबई में दहशत की लीलाएं रची थी, धमाके किये थे ....बेगुनाहों का खून बहाया था... आज इसकी दूसरी बरशी है. होटल ताज पर धमाको के जख्म भले ही भर गए हो पर दिलो में आज भी ये ताज़े है ....आज मुंबई में कई सदभावना कार्यकम आयोजित किये है.... शहीदों को नमन किया जा रहा है लेकिन गहरी जख्म खाए  उन बेबाओ ,मजलूमों की दिलो में शांती तब आएगी जब "कसाब" जैसे आतंकारियों का कड़ी सजा दी जाये .....हम भी उन सभी नाम -अनाम शहीदों को अश्रुपूरित नयन से नमन करते है  .........

आतंकवाद
कैसा रिश्ता लिखू कलम से ??
इन आतंक का बन्दूको से
हाहाकार है जग में फैला
बारूद के संदूको से
आज पैदा हो गए है कई रावण
लिए हाथ में दोनाली
मार रहे वेवश बच्चों को
खेल रहे खूनों की होली
लिखू कोई कविता  आतंक पर
या मै भी उठाऊँ बंदूके
या तान सीने पर मै भी लिख दूँ
कविता इन बन्दूको पर ....

अरे ! कैसा रिश्ता लिखूं कलम से
इन बारूद से बन्दूको का .........
बमों के इन धमाकों से
आतंक के काली रातो का ...........
मन में पलते गोलों से
दिल में दहकते शोलो का .........
अरे ! धरती बिछ गयी निर्दोषों से
लथपथ नदियाँ खूनो से
शहर शहर में दहशत है
घर में घुसे "लादेनो" से .......
बन्दूको के ठाएँ- ठाएँ से
टुकड़े हो गए धर्मो के .....
बुझ गए मंदिर के दीपक
"गजनी" के औलादों से ..........
बैठ मंदिर में देख रहे भगवन
पूत कपूत की लीलाएं .......
लीलाओं ने लील ली जाने
लाखो दीन- बेकसूरों की.....
बोलो कैसा रिश्ता लिखू कलम से
इन मजलूमों का बंदूकों से

जब लोकतंत्र के मंदिर में
गोलियों की बौछार हुई
मुंबई के बम धमाकों से
जब धरती लहूलुहान हुई
"ताज " में घुसकर लादेनों ने
जब चमकायी दहशत की तलवारें
तब हमने हाथ मरोड़ी दहशत की
कमर तोड़ी "कसाबो" की
एक-एक को चुनकर मारा   
दोजख के गलियारों तक
बोलो कैसा रिश्ता लिखू कलम से
इन बारूद का बन्दूको से .............
सत्य अहिंसा बापू की अब काम नहीं आएगी
सूरज डूब जायेगा पटल अब शाम नहीं आएगी
आतंकवाद आज फन फैलाएं,डसने को तत्पर हरवक्त
झेल रहा भारत वर्षो से दहशतगर्द का संकट विकट
अब लड़ना होगा, भिड़ना होगा मिलकर इससे निबटना होगा
आतंक के घातक विषधर को अब तो शीघ्र मसलना होगा
फ़ैल न जाये ज़हर जगत में इससे हमें उबरना होगा
बाह मरोड़े मिलकर हमसब "गोरी" के औलादों का
बोलो कैसा रिश्ता लिखू कलम से बारूद से बंदूकों का .......

शनिवार, नवंबर 20, 2010

परछाई

आत्मशून्यता की स्थिति में होने पर कभी कभी भाषा का बहना बड़ा ही सरल हो जाता है मेरे लिए शायद ऐसा ही कुछ हुआ था इस कविता में .......




प्रतिपल प्रतिक्षण
साथ निभाती
संग संग चलती यामिनी
ओ गामिनी
कुछ देर ठहर ,रुक जा
हो जा स्वच्छंद
और कर दे मुक्त मुझे भी
अपने उस बंधन से
जो प्रतिबिम्ब बन मेरा
जकड़ रखी जंजीरों से
जंजीरों की ये कड़ कड़
मुझे तन्हाई की राग भैरवी गाने नहीं देती
ओ मेरी परछाई
छोड़ दे संग संग चलना
जी ले अब अपना जीवन
पी के मधुप्रास....
शांत उदात रात्रि के बीच
टिमटिमाता एक छोटा सा पिंड भी
घोर कालरात्रि में
 तेरे अस्तित्व बोध के लिए काफी है!!!
भले तेरा अस्तित्व मेरे से है ....
मेरे बाह्य रूप आकार को साकार करती
ओ परछाई !!!!
ठहर और उड़ जा....
 हो जा स्वच्छंद .....
अज्ञात
उस अतीव के सीमा से परे
कोसो दूर
जहाँ स्वत्व के खोज में
तथागत ताक रहा गुनगुना रहा
बुधमं शरणम्  गच्छामि
संघम शरणम्  गच्छामि ...........
 

निर्झर गीत

कितना अच्छा होता की आसमान से रंगों की बारिश होती .फुहार बनकर ये रंगीन बूंदों में जीवन के दुःख घुल जाते .खुशियों से अतिरेक नन्ही -नन्ही विभिध रंगों का वरसना बिलकुल हमारे लिए खुशियों का एक नया द्वार खुलने सा होता जहाँ सिर्फ पत्तों की सरसराहट ,चिड़ियों का कलरव ,पहाड़ी झरने का मधुर संगीत और हवाओं का छूना एक अजीब एहसास से भर देता. हमारे दिल को झंकृत सा कर देने वाले ये विविध रंग लाल, पीले, हरे, सफ़ेद हमारे दैनिदनी के जीवन स्त्रोत होते ....सरसराती हवाएं हमारी चेतना के विम्ब बनकर रंगीनियत का एक अद्भुत पट खोलती ...इन रंगीन बारिश का अपने इर्द गिर्द बरसना ही मेरे कवितायों के सृजन का मूल होता है ...............


फैले है इन्द्रधनुष सा आँगन में
ये नदियाँ ,पवन ,गगन, सितारे
समेट तू इनके एहसासों को
गीत नया तू गाता चल........

बादल बन अम्बर को छूलो
कभी बरखा बन धरती को चूमो
इस रुखी सुखी,बंजर धरती को  
हरियाली का गीत सूनाता  चल
गीत नया तू गाता चल .........

सृजन से कोख हरी हो जाये
ऋतूयों के इस स्वयंबर  में
रचे बुने कुछ स्वप्नों का
अविरल अन्दर से बह जाने दे
ख्वाब सुनहरे पूरे हो जाये
गीत ऐसा तू गाता चल ..........

उम्मीदों का पंख फैलाएं
स्वच्छंद थोडा सा उड़ने दो
बुझी-बुझी सी इन पिंडो को
जगमग सूरज सा होने दो
कम्पन हो जाये कण-कण में 
गीत अविरल तू गाता चल .........

सात सुरों से बनी रागिनी 
बनकर अपनी चाँद पूरंजनी
छेड़ जीवन में वैदिक मंत्रो को
राग भैरवी गाता चल
मंत्र यूही गुनगुनाता चल ..........

तू ठहरी खुशबू का झोका
मै पगला भंवरा ठहरा
 तू ठहरी मदमस्त पवन
मै बावला बादल ठहरा
जीवन के इस पतझर को
बूंदों में तू घुल जाने दो
झरनों सा निर्मल निर्झर
गीत नया तू गाता चल ........

मांग रहा खाली दामन में
हे !चाँद थोड़ी शीतल चांदनी दे दे
मिल जाये सांसो को संबल
अमृत गंगा सा पानी दे दे
खिल उठे मन का कोना -कोना
ऐसा गीत नया तू गाता चल
कुछ सरल संगीत सुनाता चल.........
 

शनिवार, अक्तूबर 30, 2010

ग़ज़ल

                    ग़ज़ल
जीवन के फलसफे को पढना नहीं आया
दोस्त तेरे संग संग चलना नहीं  आया

गुजरा था कभी संग बचपने फकीरी में
वक्त बदलते ही पहचानना नहीं आया 

रहमतो की बारिश से तू बन बैठा अमीर
कह गए अबतक जीने का सहुर नहीं आया

इब्तिदा किये थे  सजदा करेंगे साथ साथ
छोड़ गए तनहा कहा रब में डूबना नहीं आया

फरमाबदार बनकर बैठे थे कलतक एक- दुसरे के
नेवला खीच कहते हो दर पे कोई भूखा नहीं आया

लिखता रहा वर्षो तलक तेरी दोस्ती के किस्से
सरेआम कह गए तुझे यारी निभाना नहीं आया

खंजर उतार सिने में लहूलुहान कर गए
बहते इन अश्को को रोकना नहीं आया

कुचले है सर राम रहीम के इस कदर
शेखेहरम बन बैठकर रोना नहीं आया 

दरिंदगी ने ने सुखा दिए अश्क मेरे इसकदर
की मुजस्समा बन बैठ मुझे हँसना नहीं आया

रोती रही राते  चीखती रही दीवारें
धमाकों की आवाज में सोना नहीं आया
  
कभी सहन में जमती रही थी महफिले रात भर
दरबदर हो गए "राकेश " से कोई मिलने नहीं आया

लिखता रहा आजीवन सभी धर्मो के मुखड़े
कह गए दोस्ती का ग़ज़ल लिखने नहीं आया

 कायनात से रुखसती का इसरार किये बैठे है
दोस्त तेरे बिना अबतक मरना नहीं आया

शनिवार, अक्तूबर 23, 2010

.टटोलती यादें

कविता मेरे मौन की अभिव्यक्ति है. विचारो की शक्ति है. मेरे अन्दर विचारो के पुतले जन्म लेते रहते है .कुछ अपने भ्रूण अवस्था में ही दम तोड़ इहलीला को प्राप्त हो जाते है तो कुछ शैशवा अवस्था में ही मेरे विचारो से विदा ले लेते है. पुतले के जन्म के इस संघर्षों में कुछ विचार जदोजहद करके मेरे से यदाकदा कुछ लिखवा पाने  के स्रोत्र बन जाते है....और चंद शब्द -सृजन के तब अभिव्यक्ति बन, कविता का रूप धर लेते है, जब विचारों का आत्मसंघर्ष पुतलो के रूप में नृत्य-लीला कर अभिव्यक्ति का नट-भैरव करने लगता है....कविता मेरे इर्द गिर्द फैले जड़ता से भी बुनी जा सकती है तो कभी समाज की विसंगतियां इसके कारक बन, तेवर के कुछ चीजे लिखवा पाने में सफल हो जाते है..
अकेलेपन का साथी होना भी मेरे सृजन की नींव है...कविता कभी रात में मुझे उठाकर झंझोरती हुई कहती है लिखो मुझे ...बुनो रिश्तो का तारतम्य भी सृजन का गवाह बन जाता है यह कविता भी ऐसी ही लिखी गयी थी खुद को टटोलने का एक विखरा
प्रयास .............


हम अक्सर आईने के
सामने खड़े होकर
खुद को टटोलते है, ढूंढते है
देखते है, अपना अतीत
और ऐसे, मानो
कोई खोयी हुई चीजे
पुनः प्राप्त होने को है
हम नित्य कुछ खोते है
और ढूंढते भी
ताकि समय की गर्द में
हम भूल न जाये की
हमें याद क्या करना था ?

नयी चीजे प्रवेश करती है
पुराने को धकियाते हुए
और पुरानी होती हुई
धूल का एक गुबार
इसे अदृश्य सा कर देता है
और हम फिर भूलने लगते है !!!
की अचानक ही
सुनहरी यादों का झोंका
गर्द गुबार को उड़ाते हुए
वक्त को हाथ में कैद कर देता है
और हमें याद हो आता है
जज्बातों को समेटे...
अतल समुद्र में धीरे धीरे
सूर्यास्त के साथ डूब जाना ?????

गुरुवार, अक्तूबर 21, 2010

शूली पर भगवान

आस पास व्यापत कई चीजे आहत करते रहती है ये व्यथा कविता बनकर पन्नो पर उतर आती है

शूली पर भगवान
कुछ गाओं गुनगुनाओं एक कविता सुनाओ
देश पर ,समाज पर,
लाश ,सरकटी के फैले व्यापार पर
सत्ता गहते लोगो के लोलुप अधिकार पर या
राजनीती में फैले---डूबे आकंठ भ्रष्टाचार पर .......
सुनाओ किसने उतारी ये गाँधी जी की धोती
चश्मे और डंडे की कैसी लगी बोली ??
खादी और खाकी के रहते
नंगे होते बापू पर
बोलो तुम कुछ कह पाओगे???
या गोडसे बनकर के तुम भी बन्दूक चलाओगे????

कलम भी हुई कमीन अब
लोकतंत्र हुई गमगीन अब
बंधक बन गए लोकतंत्र पर
क्या कविता कोई गाओगे ???
या मेज़ थपथपाकर संसद में
कौरव की सरकार बनौगे ???
संसद में ताकत के दम पर
जीत रहे बेईमान है ....
नाज़ नाक को ताक पर रखकर
बेच रहे हिंदुस्तान है ....
इन चोरो को नंगा कर दे
क्या ऐसी कविता गाओउगे ????
आज गांवों में फैला सन्नाटा
दुश्मन बनकर भाई ने लुटा
जात धर्म के परदे में
हमने राम -रहीम को लुटा
जनतंत्र है बनी बेचारन
बंधक बनकर खादी की .
बंधन से ये मुक्त हो जाये
क्या ऐसी कविता गाओगे ????
हिंसा के दलदल में डूबा
लोकतंत्र शर्मशार है
व्यभिचारो की मंडी में
नित होता नया व्यापार है
कब तक युही लटकाओगे ??
शूली पर भगवान को........
कलयुग का रावण मर जाये
क्या ऐसी कविता गौओगे ????
नेताओं के इस नगरी में
धूर्तो का बोलबाला है
कपटी काटे फसल झूठ की
कंस यहाँ रखवाला है
मिले कंस से त्राण हमें
क्या ऐसी कविता गौओगे ?????
क्या ऐसी कविता सुनौगे ?????

गुरुवार, सितंबर 02, 2010

कुछ अनगढ़ी शब्द चित्र संस्मरण

कुछ भी लिखना अगर इतना आसान होता.... तो पता नहीं कितना कुछ अपने, इर्द -गिर्द फैले वस्तुयों से, संबंधो से, नाता जोड़ लिख लेता और हम सरल ही सही कुछ कह जाते ...मगर ऐसा मेरे साथ नहीं हो पा रहा था. लगा लिखना मेरे से कतई संभव नहीं........(ऐसे आज भी यही सोचता हूँ ...) कविता मेरे लिए वैसी ही थी जैसे उफनती धारों में बिना पतवार दूर समुद्र का सफ़र करना ..या त्वरणहीन उपत्कायों से धरती की परिक्रमा.... पर जब आयाम बनते है बिम्ब खुद ही छंद बन जाते है और क्षितिज से सृजन की लौं रोशन होने लगती है... कवितायेँ कभी ख़तम नहीं होती यह जीवनपर्यंत गायी जाने वाली राग -रागनियाँ है जब भी हम अपने अन्दर प्रकृति के सुरों की मद्धम सी भी ध्वनि महसूस करते है राग की तरंगे अपना रास्ता ढूंढ़ लेते है और हम कुछ अनूठा अद्भुत रच पाते है अनु की अन्दर लेखको की भाषा चेतना सी पता नहीं कितनी राग तरंगे हमेशा बिम्बित होते रहते है......उसी के प्रेरणा से कुछ दिनों पहले उसी के लिए कुछ पंक्तियाँ लिखी थी ........

कहाँ से लाती हो कविता ?
कैसे बुनते हो शब्द!
प्रकृति में फैले इन्द्रधनुषी रंगों की तरह,
कहाँ से आते है ये भाव ?
आसमान में तैरते शब्दों से
कैसे जोड़ लेते हो रिश्ते ??
मै भी तो जानू,
कैसे लिख ली जाती है कविता ?
कुछ "अनुपम" कुछ " नवीन"
जल में फैले तरंगो की तरह
कहाँ से आते है श्रद्धा के ये चंद शब्द
बिम्बों में कहाँ से झांकता है,
सृजन की अकूत संभावनाओं का चाँद
कैसे नापते हो ??
शब्दों की गहराई से उमगते सूर्य को, उसके संताप को
कौन देता है छंदों में जीने की प्रेरणा ??
खाली रिश्तो के इस बियाबान में
कैसे काटते हो भाव की फसल
"श्रधा" की ग़ज़ल
विचारो की पौध
कुछ "सत्य" कुछ "सुशील"

अनु खूब लिखती है और मुझे उसमे अद्भुत, अनंत संभावनाएं दिखती है अभी मै उसका ब्लॉग पढ़ रहा था . मै तो उस ब्लॉग के अनुपम यात्रा के यात्री के रूप में अपना सफ़र शुरू कर दिया है..... क्या आप भी जुड़ना चाहेंगे .......(www.sushilanu.blogspot.com)
सबसे पहले तो बधाई की हम भी एक अद्भुत अनुपम यात्रा के यात्री के रूप में शामिल है ........ शुरुआत शानदार हुई है और हम चाहेंगे की इस अनुपम यात्रा के विभिन्न बिम्बों के हम भी साक्षी बने.... अनु तुम्हारी ये सारी कविताये ऐसी है जैसे बारिश के बूंदों का मद्धिम संगीत या चिड़ियों का मधुरव कलरव ....फूलो की खुशबू को अंतरतम से महसूस करना या झरनों का कलकल स्वर .........तुम्हारी कविताओ में प्रकृति खूब बोलती है ..पंक्तियों का सृजन भाव या तो वेदना होती है या प्रेरणा.... जो जितना ज्यादा भावुक होता है वो उतना ही ज्यादा कुछ व्यक्तय कर पाता है....रोना भी एक सृजन है और यह आत्ममुग्धता की मौनता को तोड़ता है चाहे वह व्यथा हो, उन्माद हो, गुस्सा हो, प्रेम हो, कुंठा हो ...अपना व्यक्त होने का रास्ता बना ही लेता है ...तुम इतना सरल तरीके से जो इतना अद्भुत कुछ कह जाती हो यही तो अनुपम है ..... तुम्हारा इंसान बनाने का यह प्रयास सराहनीय है .........न तो पर्वत को नदी की हत्या करनी चाहिए न हमें अपने संस्कारो की .... जीवन में संस्कारपरक शिक्षा जब से अर्थपरक शिक्षाके रूप में तब्दील हुआ है...नैतिकता समाप्तप्राय हो गयी है... और इसी के आभाव में हम धर्म सहिष्णु भी न रहे ... इंसान बनाने की पाठशाला लक्ष्मी के आश्रय गृह हो गए और सरस्वती के उपासकों की वैचारिक हत्या इन्ही नदी और पर्वत के समान कर दी गए तब हम कैसे हो सकते है इंसान ...........
रही बात एहसास की तो
इन्ही के सहारे तो जीवन चलता है.......
ये हर पल हर वक्त निकलता है
कभी आँखों से तो कभी शब्दों के रूप में .......
यही आँखों की पानी,
है एहसासों की जिंदगानी..

बहन तुम्हारी सारी कवितायेँ पढ़ी, गुनी ... ज्यादा बोलना या लिखना भी अतिश्योक्ति सी लगेगी ..और न बोलना हमारी जड़ता....कोई इसे पढ़कर अपनी जड़ता तोड़ने को वाध्य हो ही जायेगा ...
सचमुच कितनी सही बात लिखी हो इस कविता में "हमारे बीच एक कविता बहती है...." संवेदनायों के धरातल पर कोई भी आ कर रो लेगा ...द्रवित हो जायेगा फिर कैसे संभव है की आँखे नम न हो.....बहुत सुन्दर .... एक कविता बहती तो सब में है पर छंदों में कहा कोई जी पाता है ....छंदों के संभावनाओ को तो कवियों का चन्दन वन कब ही पी चूका है ये हमारे बस की बात नहीं.....कविता की सरिता से एकाकार होना हम तो इसी अनंत अनुपम यात्रा में सीख रहे है...........संभावनाओ का आकाश कही न कही मौजूद जरुर है.... तो हम भी बहा लेगे कविता की सरिता ...............
काफी वर्षो बाद इस से मिलना हुआ फ़ोन पर बाते भी हुई ..... रक्षाबंधन पर उसने कवितायेँ लिखी काफी भावनापूर्ण ..आँखें नम कर देने वाली ..आप भी पढ़े ...........

भावों से परिपूर्ण भाव रूप में ही
एक धागा भेजा है !
जीवन के कई सांझ-सवेरों का
अनुगूंज शब्दों में सहेजा है !!
इन्ही शब्द विम्बों में
अपनी राखी...
पा लेना भैया!
हमारी दूरी
पाट ली जाएगी...
चल पड़ी है जो भावों की नैया!
अविचल चलते राहों पर
कवच है शुभकामनाओं का...
तेरे भीतर विराजता- स्वयं शिव है तेरा खेवैया!
सबकुछ शुद्ध अटल है तो
पहुंचेगा ज़रूर तुम तक...
इतना कहते हुए अब तो आँखों से बह चली है गंगा मैया!
अब विराम देती हूँ अपनी वाणी को
सहेज लेना जो इस अकिंचन ने भेजा है !
जीवन के कई सांझ-सवेरों का
अनुगूंज शब्दों में सहेजा है !!

इस कविता को पढने के बाद आँखे नम न हो यह तो हो ही नहीं सकता था सच कहू तो राखी के साथ शब्दों की ऐसी गरिमा दी गयीं थी की स्वतः ही कुछ बह चला ..प्रत्त्युतर शायद इसी भावनायों की सम्प्रेषनियता का अप्रतिम उत्कर्ष था.........

बहना तुने जो धागा भेजा
वह अगणित भाव लपेटे है
रिश्तो की पतली डोर लगे
पर संबंधों का सार समेटे है.

आँखों से अविरल निकल रही है
भावो की निर्मल गंगा
नयन हमारे अश्रुपूरित है
तू ठहरी देवी, दुर्गा, माँ अंबा.

जटाजूट भी हाथ पसारे
कह रहा इसे बहने दो
अक्षत रोली वन चन्दन है यह
पावन अमृत बहन अनुपमा का

देने को तो बहुत कुछ है
पर सब कुछ तूछ्य तेरे आगे
मेरा सबकुछ तेरा है
भले पतले हो ये धागे

इन पतले स्नेह के धागे में
बंधन है जन्म-जन्मान्तर तक
आज कर्ण खड़ा है हाथ खोले
देने को कल्प मवन्तर तक

यह तुम्हारा ही देन है मै अकिचन भी कुछ लिख पाया
बहुत बहुत शुक्रिया बहन मुझे कविता से जोड़ने के लिए ..
ढेर सारी ज्ञान चाक्षुष खोलने के लिए....

बुधवार, जुलाई 28, 2010

चांदनी चली चार कदम, धुप चली मिलो तक

दिसंबर के अंत में लिखी गयी यह कविता इंटर सीमेंट कल्चरल प्रतियोगिता के लिए लिखी गयी कविता का विषय (शीर्षक ही इसका विषय था ) पूर्व निर्धारित था .......समय सीमा के अन्दर न पढ़ पाने के कारण इसे सेकण्ड स्थान मिला था अनंत संभावनायों वाली बहन अनुपमा के प्रेरणा से आज आपके सामने ..........

चांदनी चली चार कदम, धुप चली मिलो तक
सुख नहीं देता है सुख, दुःख चले सालो तक
जीवन की परिपाटी यही, रेंगती रहती है निशदिन
काँटों और फूलो को देखो, जीवन सहेजता है दिन -दिन
यह जीवन क्या! कैसा जीवन ? जिसमे कांटे फूल न हो
सरक नहीं सकती है सरिता, जिसमे दोनों कूल न हो
सरिता सरकती है पर, तालाब टिका सालो तक ....
चांदनी चली चार कदम, धुप चली.............

चांदनी आती है, मुस्काती है, कुछ ही दिन
यौवन का ज्वार भी, सरकता है कुछ ही दिन
आता है बुढ़ापा, ठहर जाता है सालो तक
नसे शिथिल हो जाती है, पक जाता है बालो तक
क्या कहे ! किस से कहे ! यह रिसता रहता जीने तक
चांदनी चली चार कदम, धुप चली.............

जीवन की यह पगडण्डी, टेढ़ी मेढ़ी चलती है
राही चलता रहता है, बेडी जकड लेती है
अरे कौन सुनता है ? किसको सुनाये दुखड़ा ?
हँसता है कुछ ही दिन ,जीवन भर रोता मुखड़ा
हर्ष हरसाता कुछ ही दिन, बिषाद रहे सालो तक
चांदनी चली चार कदम, धुप चली...........

आती है बहार, बाग-बाग खिल उठते है
पवन की मनुहार पा, फूल मुस्क उठते है
भवर सूंघ गंध को ,गुंजन कर उठता है
तितलियाँ थिरकती है, पराग उमड़ उठता है
बसंत रहता कुछ ही दिन, पतझड़ झड़ता सालो तक
चांदनी चली चार कदम, धुप चली...........

पावस जब जब आता है, नदी नाल उमड़ पड़ते है
काली काली मेघ को देखो, कैसे उमड़ घुमड़ पड़ते है
तट पर के गाँव-गाँव, सिहर उठते है क्षण-क्षण में
कहर कहर मच जाती है, धरती के इस कण- कण में
आस क्षणभंगुर है, साँस चले सालो तक
चांदनी चली चार कदम, धुप चली...........

चांदनी चटकती चुटकी भर, धुप सदा खिलती है
शीतल बयार क्षणिक, उमस सदा रहती है
बाढ़ आती है तो, सब कुछ बहा ले जाती है
पर मंद-मंद धार सदा, प्यास बुझा जाती है
आशा क्षणभंगुर है, निराशा चले सालो तक
चांदनी चली चार कदम, धुप चली...........

आंधी आयगी ही कुछ क्षणों के लिए
आफत लाएगी ही धुल कणों के लिए
चांदनी छिटकेगी, धूप आएगी ही
सृष्टी की ये सतता है, अपना कर्तव्य दिखाएगी ही
सृष्टी का यह क्रम, चलेगा सालो-सालो तक
चांदनी चली चार कदम, धुप चली...........

चंचल चित चहकता है चांदनी के चम-चम में
कोयल की कुहू-कुहू, गूंजती है वन-वन में
वही चित्त चरक जाता है, सूरज की धूप में
बादुर दहल जाता है, जल विहीन कूप में
यही क्रम चालू रहता है, जीवन के धरातल पर
चांदनी चली चार कदम, धुप चली...........

मंगलवार, जुलाई 20, 2010

नक्सलियों की लिमिटेड कम्पनी

जिस जनपक्षधारिता को लेकर नक्सलपंथ का गठन हुआ था आज उससे संघटन के लोग खुद विमुख हो गए है. अब नक्सल गरीबो के हक़ हुकुक के लिए आवाज उठाने वाला संघटन न रहकर एक लिमिटेड कम्पनी बन गयी है जिसका टर्न ओवर कई हज़ार करोड़ रूपये से ज्यादा है..न तो अब जमींदार रहे और न ही दलितों को दास बनाकर उनका शोषण करने वाले भूपति शायद यही वजह है की नक्सली भी अपने कार्यशैली में काफी बदलाव ला चूके है. जुल्म और बदले की भावना उतना बड़ा घटक नहीं रहा इस संघटन से जुड़ने का..बिहार में रोजगार के अभाव में लोग नक्सली संघटन से जुड़ रहे है..नक्सली बतौर वेतन का भुगतान कर रहे है अपने कामरेडों को.और कामरेड भी पैसे, रोजगार और पॉवर के चक्कर में बन्दूक उठाने को तैयार है कल ही जनसत्ता में नक्सली संघटन पर लम्बी रिपोर्ट सुरेन्द्र किशोर जी की पढ़ी. कई मुद्दे और कारण अब अप्रासंगिक लगे. बिहार के औरंगाबाद की स्थिति भी काफी बदल चुकी है मध्य बिहार में अब नक्सलियों का एकमात्र उदेश्य पैसा कमाना रह गया है नीति सिद्दांत जैसी कोई चीज नहीं रह गयी. शोषण का तरीका भी बदल गया है जाती बहुलता वाले क्षेत्र में खुद नक्सली संघटन के लोग वही करते है जो उनके इर्द-गिर्द रहने वाले उन तथाकथित नेतायों को बताते है.नक्सलियों ने खुद एक शोषक वर्ग खड़ा कर दिया है जो सचमुच के "जन " का शोषक ,सामंती बन बैठा है. संघटन से जुड़ना आज फायदे की बात हो गयी है खाटी कमाई का जरिया और घर बैठे रोजगार . आज ही खबर पढ़ी की नक्सल के खिलाफ राज्य साझा अभियान चलाएंगे तब कई बाते इस से जुडी सामने आने लगी लगा आवाज दबाकर और बन्दूक के दम पर इसे रोका नहीं जा सकता है आज नक्सलवाद देश के सबसे बड़ी आंतरिक समस्या के रूप में सामने है. पूरे देश में इससे निबटने की सारी उपायों पर चर्चाएँ चल रही है लेकिन मुद्दा घूम फिर कर जमीनी विवाद तथा इसका सही वितरण न होना माना जा रहा है ..हो सकता है छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भूमि की असमानता इसके पनपने का एक कारण हो लेकिन बिहार जैसे राज्यों में यह अब सही नहीं रह गया ........जब दो दशक पूर्व डी.वन्दोपाध्याय ने नक्सलवाद का मुख्य कारण जमीनों के असमान वितरण को माना था तब बिलकुल सही था आज स्थितिया बदल चुकी है .अभी हाल ही में मै बिहार गया था एक पखवारे की छुट्टी पर .......मै बताता चलु की मेरा घर गया जिले के सुदूरवर्ती प्रखंड इमामगंज में है ....घोर नक्सल प्रभावित क्षेत्र जहा आज भी नक्सलियों की ही सरकार चलती है मै इन क्षेत्रो में एक स्टिंगर के रूप में करीब छः सालो तक काम भी किया हूँ .....और नक्सलियों पर बिशेष रिपोर्टिंग भी. कई जन अदालतों में भी शामिल हुआ ...... इनके खिलाफ रिपोर्टिंग के कारण कई बार हाथ -पावँ काटने की धमकियाँ भी मिली .......मै कई वैसी चीजो का खुलासा किया था जो कही से भी जन सरोकार से जुड़ा हुआ नहीं था ........मैंने नक्सल संघटन से जुड़े कई ऐसे लोगो की सूची प्रकाशित की थी जो संघटन से जुड़ने के बाद लखपति-भूमिपति हो गए, इसमें संघटन के करीब डेढ़ दर्ज़न शीर्ष नेतायों का नाम था .........आज की स्थिति यह है की लोग संघटन से सिर्फ पैसो के लिए जुड़ रहे है .....उपभोक्तावादी दौर में लोगो के महत्वकांक्षा इतनी बढ़ गयी है की आज का युवा सिर्फ पैसा चाहता है और यही पैसे पाने की लालसा का फायदा ये नक्सली उठा रहे है संघटन से जुड़ने वाले लोगो को ४०००/- से लेकर २५०००/- तक बतौर मेहनताना दिया जा रहा है और ताकत ,अहम्, गुरुर तथाकथित सम्मान अलग मिल रहा है सोअलग ......... इनसे जुड़ने का दूसरा कारण खासकर कमजोर वर्गों का बहुत समय से दबाया जाना भी है .....आज भी बदले की भावना से लोग संघटन से जुड़े है ...... तथा जुड़ रहे है.. ग्रामीण अंचलो में नक्सलियों की अदालत बैठती है जिसमे सैकड़ो मुद्दे जो बिशेष्कर जमीनी विवाद से जुड़े होते है निबटाया जाता है ......
बिहार सरकार मान रही है की नक्सली घटनाओ में कमी इसके द्वारा की जा रही उपायों से हो रही है जो कुछ हद तक तो सही हो सकता है पूरी तरह से नहीं.....
हाल ही में मेरी मुलाकात नक्सली गतिविधियों से जुड़े एक नेता से हो रही थी उसने जो सच्चाई बताई वो हैरत अंगेज थी .....अब माओवाद के विचार सिर्फ बात करने की रह गयी है ....अब मूल मुद्दा लेवी बसुलना ,सरकारी योजनाओ का फायदा संघटन से जुड़े लोगो को दिलवाना रह गया है .आज हरेक कस्वे ,गाँव बाज़ार में इन्होने अपना नेटवर्क फैला रखा है सूचना देने के बदले नक्सली इन युवाओं को सरकारी ठीकेदारी, बीडी पता का ठेका ,बस स्टैंड,बाज़ार का ठेका ,जंगली सामानों लकड़ियों की तस्करी, लेवी बसूलने जैसे कामो के जरिये रोजगार दे रखी है .......बताया जाता है की बिहार सरकार के सालाना बज़ट से ज्यादा तो इनका बज़ट है एक अनुमान के मुताबिक आज इनके पास ५००००/-करोड़ से ज्यादा का नगदी प्रवाह है ........यह अब माओवादी कमुनिस्ट पार्टी अब जन सरोकार से सम्बन्ध रखने वाली पार्टी न रहकर लिमेटेड कंपनी बन चुकी है
संघटन से जुड़ने वाला हरेक व्यक्ति व उसका परिवार तब तक संघटन के वेलफेयर का फायदा लेता है जबतक वह संघटन से जुड़ा रहता है ...इस संघटन से जुड़े कई लोगो के बच्चे उच्च स्तरीय अंग्रेजी स्कूलों में पढाई कर रहे है .......उन सारी चीजो का उपभोग कर रहे है जिसे फिजूलखर्ची बोला जाता है ........संघटन के एक बड़े नेता एवं एक शीर्ष नक्सल नेत्री से शादी के दरम्यान वो सब किया गया जो संघटन के नीतियों के विरुद्ध था ....दर्जनों गाड़ियाँ और हजारो को खाना खिलाने की व्यवस्था की गयी थी इसी तरह संघटन से जुड़े एक नेता के गृहप्रवेश पर भी बहुबलिता का सारा परिचय दिया गया था ये सब छोटे छोटे वाकये है जिसे मैंने यहाँ जिक्र किया है जो यह बतलाता है की संघटन एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी की तरह काम कर रही है .एक वाकया मुझे आज भी याद है दलित तबके का एक व्यक्ति मेरे घर आया और कहा की सरकार से भूदान में हम ४२ दलित लोगो को ४२ कट्ठा जमीन का परचा दिया गया था जिसपर आज नक्सलियों का खुला संघटन किसान कमिटी का कब्ज़ा है...जिससे जुड़े हुए सभी लोग पुर्व सरकार के समर्थक रहे एक जाती विशेष से है ..और हम भूखो मर रहे है जब मैंने इसे अखबार में छापा तो खाफी हंगामा हुआ और दलितों को जमीन वापस दी गयी .ये सारी बाते यहाँ इसलिए कही जा रही है ताकि सच्चाई सामने आ सके. आज सरकारी कारिंदे खुद मिले है इन लोगो के साथ .....पुलिस खुद समझोता करती है की हमारे क्षेत्र में अपराध नहीं करो हम तुम्हारे आदमियों को नहीं पकड़ेगे .......और इसे ही सरकार नक्सल गतिविधियों का कम होना मानती है . महीने में सात से दस दिन तो नक्सली अपने प्रभाव वाले क्षेत्रो में जब चाहते है पूरा बाज़ार बंदकरवा देते है .....पिछले साल ही केताकी औरंगावाद के पास नक्सलियों ने पूरे एक महीने तक एक बाज़ार को बंद करवा रखा था ............क्या कहेगे इसे आप ........?????
नक्सलियों ने लोगो की पास धन दिया है सम्पनता दी है इच्छाएं पूरी करने को धन दे रही है और आप क्या दे रहे उसे आज़ादी के छः दशक में उसे जीने की आज़ादी तो दे ही नहीं सके .....भूख से मरना आज भी जारी है .......गरीबो की एक बड़ी तादाद आपका मुह चिढ़ा रही है ........अकाल और बाढ़ पर आज इतने सालो बाद भी अंकुश नहीं लगा सके, सुदूरवर्ती क्षेत्रो में चिकित्सा के अभाव में आज भी लोग दम तोड़ रहे है और आप कहते है हम नक्सलवाद का नियंत्रण कर लेंगे .....??? नक्सलियों से मिले पैसे और रोजगार के दम पर खुद ही जीना सिख रहे है लोग आज लिमिटेड कम्पनी की तरह हजारो लोगो के परिवार का भरण पोषण इन नक्सलियों के द्वारा हो रहा है. इनके लिए मसीहा है ये नक्सली ..
क्या सरकार इन लोगो को वो रोजगार मुहैया करवा पायेगी जो नक्सली संघटन कर रहे है ....... ????
सिर्फ खेती पर आश्रित रहने वाले लोगो के पास चार महीने से ज्यादा का काम नहीं संघटन से जुड़ना इनकी मजबूरी है आप इन्हें रोजगार दे सुविधा दे...........परिणाम आपके सामने आ जायेगा. सिर्फ कागज़ पर आंकड़ो के खेल से गतिविधियों पर नियंत्रण नहीं हो सकता और न ही अर्धसैनिक बलों के दम पर .......

शनिवार, जुलाई 17, 2010

ग़ज़ल

जानकी वल्लभ शास्त्री के गाँव मैगरा (गया ) के शंशांक शेखर जी ने कुछ कवितायेँ भेजी है ब्लॉग पर डालने के लिए ...मूलतः चित्रकार शेखर जी ने कवितायेँ भी खूब अच्छी लिखी है महाराणा प्रताप पर लिखे इनके काव्य संग्रह की प्रशंशा खुद जानकी वल्लभ शास्त्री जी ने भी की है ....ब्रह्मदेव शास्त्री जी के शिष्यत्व में इन्होने कला,कविता, ग़ज़ल ,व्यंग्य सभी में सिर्फ हाथ ही नहीं आजमाया बल्कि खूब लिखा....समय के पावंद ...खरी खरी कहने वाले शेखर जी की ये आदते लोगो की चुभती है जो शायद यही इनकी पूँजी है...........दो गज़ले आपके सामने
1
हुए हम आज फिर तनहा ,बता ये दिल कहा जाये .
वो यादो के जो साये है ,वो लिपटे है वो तडपायें
अँधेरी रात किस्मत में
तमन्ना चाँद पाने की
कहानी है यही मेरी
तेरी दुनिया में आने की
बता ये दिल कहा जाये ...............
चले जिस राह पर ये दिल
कहीं मंजिल नहीं आयी
जहा पहुचे है हम आकर
इधर दरिया उधर खायी
बता ये दिल कहा जाये ..............
पता क्या है "शेखर" ने
कहा तक दर्द है पाले
पड़े जख्मो के दागो पर
हजारो आज भी छाले
बता ये दिल कहा जाये .......
वो यादो के जो साये है ,वो लिपटे है वो तडपायें.......!

फकत सदमो की महफ़िल
देखी है जिंदगानी में
किसको सुनाऊ दांस्ता
दुनिया है आनी-जानी में
घर है अँधेरे में ,मजार पर है उजाला
हर सुबह खड़ी लिए मुसीबतों की नयी माला
क्या नहीं पढ़ा हमने
एक छोटी सी कहानी में....
फकत सदमो की ........
कदम लडखडाये ,बड़ी दूर मंजिल
ये बागवान के मालिक, तू भी है बड़ा संगदिल
जिन्दगी भी क्या मिली है
बुलबुले को पानी में........
फकत सदमो की ........
भटकनी है जिन्दगी भी यहाँ ,क्या नहीं देखा तुने ,
आब जुवां भी नहीं खुलती,लोग आँख भी मुने ,
नहीं चैन जीने में
नहीं तेरी फानी में
फकत सदमो की महफ़िल
देखी है जिंदगानी में ...................

मंगलवार, फ़रवरी 16, 2010

जेहाद इस्लाम और हिंदुत्व

जेहाद का सही अर्थ मै आज तक नहीं समझ पाया और नहीं जेहाद के नाम पर हिंसां फैलाने वालों का सही स्वरुप ही . कुरान हदीस में इस पर कितनी लम्बी व्याख्या की गयी है उस पर मैं नहीं जाना चाहता और नहीं कोई टिपण्णी करना चाहता हूँ लेकिन इन तथाकथित मुल्लाओं ने जेहाद का जितना विकृत रूप दुनिया के सामने रखा है उसने मुस्लिमो को आतंकवादी और इस्लाम को इसका पोषक बना दिया है . क्या जेहाद का सही अर्थ यही है ??? शायद इसका उत्तर न भी हो सकता है ... क्या आप बताएंगें तथाकथित उल्लेमाओं ???? जेहाद का नाम आते ही कश्मीर में मार दिए गए लाखों निर्दोष दीखते है ?? तालिबान दिखता है ?? इस्लाम और जेहाद के तिलिस्म में टूटता पाकिस्तान दिख रहा है ?? और सबसे बड़ी बात इस्लाम के तथाकथित रक्षकों ,पूरी दुनिया में इसके नाम पर हिंसा फैलाने वालों, इस्लाम के नाम से आतंकवाद जुड़ रहा है .
मैं इस्लाम को सबसे प्रगतिशील धर्म मानता हूँ लेकिन इन धर्मगुरुओं के कट्टरता, मेरे विचारो पर पूर्णविराम लगाने के लिए काफी है.मेरे मन में इस्लाम के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं है. बस यह वह सोच है जो पूरी दुनिया में एक गैर मुस्लिम सोच रहा है. मैं भी एक उदारवादी सनातनधर्मी हूँ लेकिन इससे पहले भारतीय हूँ जिसे ईश्वर पर अगाध आस्था है, लेकिन इन तथाकथित धर्मगुरुओं के कारण नहीं. खुद के विवेक से ...अंध भक्ति से नहीं. मैं पिछले कई दिनों से काफी व्यथित था मीडिया मै कई दिनों से ठाकरेपरिवार अपने उलटे सीधे वक्तव्यों से भाषाई विवाद और देश को तोड़ने की पूरी नाकाम साजिश रच रहे है और हम इन्हें जगह दे रहे है यह हमरी नासमझी, नहीं तो और क्या है ..?
कुछ समय पहले पत्रकार जैदी और जनरैल सिंह ने बुश और गृहमंत्री पर जूता फेककर अपना विरोध जताया था . मैं भी रोज सपने में "ठाकरे " और उन सभी तथाकथित धर्म के नाम पर लड़ाने वालो को सपने जूता मारता रहता हूँ.. मेरा व्यथित मन हमेशा धार्मिक स्थलों पर एकत्रित हुए जूतों को कट्टर हिंदुत्व के पोषक ,रक्षक बने लोगो पर फेककर खुश होता है.
आज हिंदुत्व में भी जेहाद का नया स्वरुप पनप रहा है और मुंबई में तालिबान .और इस तालिबानी साम्राज्य के पोषक बने बैठे है तथाकथित हिन्दू धर्मपालक बाल ठाकरे और इनके गुर्गे,चमचे. हिंदुत्व कभी हिंसा फैलाने का जरिया नहीं हो सकता और न ही दो सम्प्रदायों, धर्मो ,व्यक्तियों व समाज को तोड़ने का उपक्रम कर सकता है. आज क्षेत्रवाद के नाम पर भाषा के नाम पर, जाती, धर्म और मज़हब के नाम पर, लोगो को तोड़ने वाले शिवसेना के लोगो तुम कमसे कम हिन्दू नहीं हो सकते ? तुम सनातनी नहीं हो सकते ?? तुम हो हिन्दू जेहाद के नए स्वरूप और मुंबई पर तालिबान की तरह हक जतानेवाले नए उसामा बिन लादेन .
आज मै इस ब्लॉग के माध्यम से उन सभी लोगो से आह्वान करता हूँ जिन्हें शिवसेना में अलकायदा का ही एक रूप दीखता है यहाँ आयें टिपण्णी लिखे और प्रतिक के रूप में एक जूता मारे.
आपका इडियट

शुक्रवार, फ़रवरी 12, 2010

भविष्य जाने

चलिए इडियट अपने इस नए ठिकाने पर आपको कुछ नया बताएगा... जानना चाहेंगे आप ???तो आये जुड़ें... आपके विचारो को सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषण,कुछ ज्योतिषिये गणित गणना से,न्युमेरोलोजी के सहारे तो,कुछ अपने इडियट प्रश्न के जरिये.. चाहते है जानना आप अपने भूत, भविष्य और वर्तमान के बारे में तो भेजिए इस ब्लॉग के जरिये खुद के कुछ विवरण
नाम --अंग्रेजी लैटर में
जन्मतिथि --
जन्म समय--
पसंदीदा रंग का नाम ---
पसंदीदा फूल ----
पसंदीदा मौसम ---
पसंदीदा दिन ---
एक अंक ----
इनमे से कोई एक का नाम ----
(सूर्य,चंद्रमा, तारे, धरती, आकाश, पौधे, नदी, समुद्र,पहाड़, हवा )
इस पते पर मेल भी कर सकते है --pathak.gaya@gmail.com

सोमवार, फ़रवरी 08, 2010

पथिक

कई दिन हो गए किन्तु व्यस्तताओं की वजह से कुछ लिख नहीं पाया .... मेरे छोटे भाई अनिश पाठक ने 2002 में एक कविता लिखी थी जो मुझे बहुत पसंद है... मुझे लगा आपके सामने रखूं..... आज आपके सामने है यह कविता ... यह कविता तब लिखी गयी थी जब भाई जल सेना की नौकरी छोड़कर आने के पश्चात, कुंठित हो मानसिक रूप से काफी विचलित था ...ये प्रेरणास्पद कविता मुझे बहुत पसंद है शायद आपको भी भाए......

भटक गए क्यों ? राही बोलो
नूतन पथ पर आकर,
हार गए क्यों ? राही बोलो
मंजिल लम्बी पाकर.
क्या तुमने देखा है ? आगे
भाग रहे है राही,
थके नहीं वे फिर भी अबतक
हटे नहीं घबराकर.
उस नन्ही पिपली को देखो
जो चढ़ती भित्ति पाकर,
डिग जाते यदि पावं उसके
फिर चढ़ती नीचे आकर.
बढ़ती रहती सदा निरंतर
नदियाँ निर्झर, निश्चल,
आ जाये अवरोध राह में
पर हार न माने चंचल.
क्या तुमने देखा है राही ?
लौटी ये आगे जाकर !
फिर बैठ गए तुम बोलो कैसे ?
राह अकेली पाकर.
ये पथिक तुम तो श्रेष्ठ हो
क्या मिलती तुमको राह नहीं ?
भटक गए यदि राह अगर तो
क्या पाने की तुममें चाह नहीं ?
उठो पथिक तुम बढे चलो
और ढूढ़ों राह निरंतर
दूर करो अँधियारा मन का
जैसे नभ में करे सुधाकर.

रविवार, जनवरी 31, 2010

यादें

एक सदी से अधिक हो गए चेखव को गुजरे हुए पर दिलो में आज भी उनकी रचनाएँ जिन्दा है ....उनके नाटको एवं कहानियों के तिलिस्म का ये आलम रहा है की उनकी कर्मभूमि बादेनवेयलर में भगवान की तरह पूजे जाते है चेखव ...कल चेखव की १५०वी जयंती थी... तो भला मै कैसे भूल सकता था अपने प्रिय लेखक को मै तो इनका जबरदस्त फैन रहा हूँ इनके कहानियों का तिलिस्म ही मेरे प्रेरणा का आधार रहा है.. मै ये हमेशा महसूस करता रहा हूँ की जनवरी महीना उन बड़े -बड़े महासमुद्रो का अवतार महीना रहा है जो मेरे चेतना के बिम्ब रहे है तथा जिन्होंने मुझे जीने का एक मकसद दिया है .ये है मेरे अत्यंत प्रिय नेताजी सुभाषचंद्र बोस ,मेरे आदर्श परमपूज्य स्वामी विवेकानंद जी , प्रिय लेखक डॉक्टर अन्तोव चेखव . और एक व्यक्ति जिनके सच के प्रयोगों ने मेरे अन्दर सेवाभाव का अगणित लघुदीप जलाया है आदरनिये गाँधी जी ..... शायद इसलिए जनवरी का महीना मेरे संकल्पों,विचारो ,आदर्शो के मूल्यांकन का महीना होता है इस पूरे माह मेरे अन्दर ये सारे व्यक्तित्व जीवित हो सामुद्रिक यथार्थचेतना पैदा कर , विचारो का एक बौद्धिक स्वरुप प्रदान करने के सभी साध्य का निमित बनते है
भले ही ये दिव्य पुरुष आज नहीं है लेकिन इनके व्यक्तित्व का ओज ,इनकी प्रखरता ,विचार आज भी प्रासंगिक है ...हाल ही में मैंने चेखव को उनकी पत्नी जो नाटक की पात्र व मशहूर अभिनेत्री ओल्गा किन्प्पेर के रूप में जानी जाती थी, का कुछ पत्र पढ़ रहा था ....ऐसे 433 पत्र चेखव ने अपनी पत्नीको और करीब 400 पत्र उनके पत्नी ने चेखब को लिखा है कमाल के भाव है इनमे , संवेदनशीलता और प्रेम को खूबसूरती के साथ उन्होंने लिखा है.. लाज़बाब है वह!.. आज इन महापुरुषों के स्मृति में एक कविता ...अपने डायरी के उन पुराने पन्नो से जो करीब आज से 7 वर्ष पूर्व लिखी गयी थी

कही दूर...सुदूर
अन्तरिक्ष के अंतरतम से पुकार कर
मानो कह रहे हो ---
अरे ! तुम कहा ढूंढ़ रहे हो मुझे ?
मै यहाँ ही तो हूँ तेरे सामने
इन तारो के बीच में से एक
जो "चेखव" की कथाओं का तिलिस्म है .
उस युग्लिना की तरह जुजुत्सू ,पराभूत
बीच की कड़ी ....
तो भला मै कैसे मरता
ऐसे मरता भी है क्या कोई...?
टिमटिमाते है सभी
इसी अन्तरिक्ष में पिंड बनकर
तो भला मै कैसे दूर हूँ ?? तुमसे
रोज ही तो आता हूँ आँखों के सहारे
ह्रदय के भीतर अंतरतम तक ....
कल रात भी आया था..
चुपके से ...
तेरे सिरहाने बिना आहट..
और बता गया था
आत्मा की नश्वरता और विचारो के अमरता का तत्व
तब तुम सोये ही थे ...
जब सुना गया था गीता का वह श्लोक
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणी नैनं दहति पावकः
न चैनं क्लेदंत्यापो:न शोषयति मारुतः

बुधवार, जनवरी 20, 2010

चित्रकार की कल्पना

गोधरा कांड के बाद आहत हो कई वर्ष पूर्व लिखी गयी यह कविता पुराने डायरी के पन्ने पलते हुए अचानक दिख गयी इस इडियट के डायरी में आज आपके सामने ......
अरे !! ओं रे चित्रकार
तुम क्यों बनाते हो
इन जलते शोलो के चित्र
बारूद और बंदूको के चित्र
दहकते पलाश के
टुह-टुह लाल फूलो के चित्र
जो बिछी है शांत उदात
खामोश !!!!!
मानो गोधरा मौन हो
क्यों चित्रकार ???
आखिर क्यों बनाते हो ??
भय ,भूख ,व्यभिचार का चित्र
विधवा ,वेवश ,अनाथ का चित्र
मज़लूमों का चित्र
पागलो का चित्र
नंगो और उन्मादियों का चित्र
फसादियों का चित्र
दंगाइयों का चित्र ???
नहीं ... नहीं चित्रकार नहीं ????
मुझे नहीं चाहिए
अखबार के पहले पन्ने का चित्र
हत्या ,लूट ,बलात्कार का चित्र
चीखती, रोती माँ का चित्र
नहीं... नहीं ... नहीं ....???
मुझे नहीं चाहिए ये चित्र
जहरीले दातो वाला यह राक्षस
लील लेना चाहता है हम सबको
नहीं ......??????
तुम बनाओं
हंसी और ख़ुशी का चित्र
अमन और मिलन का चित्र
चिड़ियों के मधुर संगीत का चित्र
बादल का गीत
शांति और प्रेम का चित्र
तुम बनोगे न चित्रकार ?????

सोमवार, जनवरी 18, 2010

कुछ बच्चा सा

कोई ख्वाव हूँ मैं सुनहरा सा ,
कुछ अच्छा सा कुछ बच्चा सा
दूर चमकते तारो का, नभ में फैले अरमानो का
अरदास मैं ठहरा कच्चा सा
कुछ छोटा सा कुछ बच्चा सा.........
मिटटी से तेरे संबंधो का, यायावर होते जीवन का
मंदिर में बजते घंटो का, हाथ जोड़े परिंदों का
दुश्मन ठहरा मैं बच्चा सा........
कुछ अच्छा सा, कुछ कच्चा सा
चली चांदनी दो कदम,धुप चली जब मीलों तक
तब तेरी लरजती गीतों का, गायक मैं ठहरा कच्चा सा
कुछ छोटा सा कुछ बच्चा सा.........
गीतों की मधुशाला पा
मदमस्त हुआ ये "बच्चन" सा
हाला पीकर मै तनहा
नाच रहा मै पगला सा
कुछ अदना सा कुछ छोटा सा.........

शनिवार, जनवरी 02, 2010

खुदा तेरे दरवाजे पर

हे राम ,
अल्लाह के बीच ,
वजूद तलाशता
गोयेब्ल्स की सच की तरह कड़वी
जब युग्लिना का बीज ------
उसकी किवताओ मे संकट घोल देती है
गले मे शाह जलील की पाक ताबीज ........
दंगाइयो के बीच ,
उसे मुसलमा बना
उसकी आत्मा को चिंद -चिद कर देती है .........
तब भी वह सपने मे ,
होत्री -उदगात्री बन .
यज्ञ मे कही सिज़दा कर रहा होता है ----------
तब 'काबा' और 'अल्लाह हो'की ध्वनी मे
'पान्च्ज्ञ्न्य' का ॐ गूंजता है ..
और इसी ऊं के बीच कही 'हिडिम्बा' कलमा पढ़ रहा होता है ,
'इबलीस' के लिए ............
क्या अजाजिल त्रिशूल लिए आज भी जिंदा नही ??????????

राकेश पाठक