शुक्रवार, नवंबर 26, 2010

आतंकवाद

आज से दो साल पूर्व आतंकवादियों  ने मुंबई में दहशत की लीलाएं रची थी, धमाके किये थे ....बेगुनाहों का खून बहाया था... आज इसकी दूसरी बरशी है. होटल ताज पर धमाको के जख्म भले ही भर गए हो पर दिलो में आज भी ये ताज़े है ....आज मुंबई में कई सदभावना कार्यकम आयोजित किये है.... शहीदों को नमन किया जा रहा है लेकिन गहरी जख्म खाए  उन बेबाओ ,मजलूमों की दिलो में शांती तब आएगी जब "कसाब" जैसे आतंकारियों का कड़ी सजा दी जाये .....हम भी उन सभी नाम -अनाम शहीदों को अश्रुपूरित नयन से नमन करते है  .........

आतंकवाद
कैसा रिश्ता लिखू कलम से ??
इन आतंक का बन्दूको से
हाहाकार है जग में फैला
बारूद के संदूको से
आज पैदा हो गए है कई रावण
लिए हाथ में दोनाली
मार रहे वेवश बच्चों को
खेल रहे खूनों की होली
लिखू कोई कविता  आतंक पर
या मै भी उठाऊँ बंदूके
या तान सीने पर मै भी लिख दूँ
कविता इन बन्दूको पर ....

अरे ! कैसा रिश्ता लिखूं कलम से
इन बारूद से बन्दूको का .........
बमों के इन धमाकों से
आतंक के काली रातो का ...........
मन में पलते गोलों से
दिल में दहकते शोलो का .........
अरे ! धरती बिछ गयी निर्दोषों से
लथपथ नदियाँ खूनो से
शहर शहर में दहशत है
घर में घुसे "लादेनो" से .......
बन्दूको के ठाएँ- ठाएँ से
टुकड़े हो गए धर्मो के .....
बुझ गए मंदिर के दीपक
"गजनी" के औलादों से ..........
बैठ मंदिर में देख रहे भगवन
पूत कपूत की लीलाएं .......
लीलाओं ने लील ली जाने
लाखो दीन- बेकसूरों की.....
बोलो कैसा रिश्ता लिखू कलम से
इन मजलूमों का बंदूकों से

जब लोकतंत्र के मंदिर में
गोलियों की बौछार हुई
मुंबई के बम धमाकों से
जब धरती लहूलुहान हुई
"ताज " में घुसकर लादेनों ने
जब चमकायी दहशत की तलवारें
तब हमने हाथ मरोड़ी दहशत की
कमर तोड़ी "कसाबो" की
एक-एक को चुनकर मारा   
दोजख के गलियारों तक
बोलो कैसा रिश्ता लिखू कलम से
इन बारूद का बन्दूको से .............
सत्य अहिंसा बापू की अब काम नहीं आएगी
सूरज डूब जायेगा पटल अब शाम नहीं आएगी
आतंकवाद आज फन फैलाएं,डसने को तत्पर हरवक्त
झेल रहा भारत वर्षो से दहशतगर्द का संकट विकट
अब लड़ना होगा, भिड़ना होगा मिलकर इससे निबटना होगा
आतंक के घातक विषधर को अब तो शीघ्र मसलना होगा
फ़ैल न जाये ज़हर जगत में इससे हमें उबरना होगा
बाह मरोड़े मिलकर हमसब "गोरी" के औलादों का
बोलो कैसा रिश्ता लिखू कलम से बारूद से बंदूकों का .......

शनिवार, नवंबर 20, 2010

परछाई

आत्मशून्यता की स्थिति में होने पर कभी कभी भाषा का बहना बड़ा ही सरल हो जाता है मेरे लिए शायद ऐसा ही कुछ हुआ था इस कविता में .......




प्रतिपल प्रतिक्षण
साथ निभाती
संग संग चलती यामिनी
ओ गामिनी
कुछ देर ठहर ,रुक जा
हो जा स्वच्छंद
और कर दे मुक्त मुझे भी
अपने उस बंधन से
जो प्रतिबिम्ब बन मेरा
जकड़ रखी जंजीरों से
जंजीरों की ये कड़ कड़
मुझे तन्हाई की राग भैरवी गाने नहीं देती
ओ मेरी परछाई
छोड़ दे संग संग चलना
जी ले अब अपना जीवन
पी के मधुप्रास....
शांत उदात रात्रि के बीच
टिमटिमाता एक छोटा सा पिंड भी
घोर कालरात्रि में
 तेरे अस्तित्व बोध के लिए काफी है!!!
भले तेरा अस्तित्व मेरे से है ....
मेरे बाह्य रूप आकार को साकार करती
ओ परछाई !!!!
ठहर और उड़ जा....
 हो जा स्वच्छंद .....
अज्ञात
उस अतीव के सीमा से परे
कोसो दूर
जहाँ स्वत्व के खोज में
तथागत ताक रहा गुनगुना रहा
बुधमं शरणम्  गच्छामि
संघम शरणम्  गच्छामि ...........
 

निर्झर गीत

कितना अच्छा होता की आसमान से रंगों की बारिश होती .फुहार बनकर ये रंगीन बूंदों में जीवन के दुःख घुल जाते .खुशियों से अतिरेक नन्ही -नन्ही विभिध रंगों का वरसना बिलकुल हमारे लिए खुशियों का एक नया द्वार खुलने सा होता जहाँ सिर्फ पत्तों की सरसराहट ,चिड़ियों का कलरव ,पहाड़ी झरने का मधुर संगीत और हवाओं का छूना एक अजीब एहसास से भर देता. हमारे दिल को झंकृत सा कर देने वाले ये विविध रंग लाल, पीले, हरे, सफ़ेद हमारे दैनिदनी के जीवन स्त्रोत होते ....सरसराती हवाएं हमारी चेतना के विम्ब बनकर रंगीनियत का एक अद्भुत पट खोलती ...इन रंगीन बारिश का अपने इर्द गिर्द बरसना ही मेरे कवितायों के सृजन का मूल होता है ...............


फैले है इन्द्रधनुष सा आँगन में
ये नदियाँ ,पवन ,गगन, सितारे
समेट तू इनके एहसासों को
गीत नया तू गाता चल........

बादल बन अम्बर को छूलो
कभी बरखा बन धरती को चूमो
इस रुखी सुखी,बंजर धरती को  
हरियाली का गीत सूनाता  चल
गीत नया तू गाता चल .........

सृजन से कोख हरी हो जाये
ऋतूयों के इस स्वयंबर  में
रचे बुने कुछ स्वप्नों का
अविरल अन्दर से बह जाने दे
ख्वाब सुनहरे पूरे हो जाये
गीत ऐसा तू गाता चल ..........

उम्मीदों का पंख फैलाएं
स्वच्छंद थोडा सा उड़ने दो
बुझी-बुझी सी इन पिंडो को
जगमग सूरज सा होने दो
कम्पन हो जाये कण-कण में 
गीत अविरल तू गाता चल .........

सात सुरों से बनी रागिनी 
बनकर अपनी चाँद पूरंजनी
छेड़ जीवन में वैदिक मंत्रो को
राग भैरवी गाता चल
मंत्र यूही गुनगुनाता चल ..........

तू ठहरी खुशबू का झोका
मै पगला भंवरा ठहरा
 तू ठहरी मदमस्त पवन
मै बावला बादल ठहरा
जीवन के इस पतझर को
बूंदों में तू घुल जाने दो
झरनों सा निर्मल निर्झर
गीत नया तू गाता चल ........

मांग रहा खाली दामन में
हे !चाँद थोड़ी शीतल चांदनी दे दे
मिल जाये सांसो को संबल
अमृत गंगा सा पानी दे दे
खिल उठे मन का कोना -कोना
ऐसा गीत नया तू गाता चल
कुछ सरल संगीत सुनाता चल.........