शनिवार, जून 04, 2011

वृक्ष की कथा-व्यथा

काफी अरसे पहले एक कविता लिखी थी लगा आज शेयर करू 5 जून से बढ़िया और क्या समय हो सकता था इसके लिए ...

आओ आज सुनाता हूँ मैं
अपना दुखड़ा अपनी जुबानी
धरती के वाशिंदों की
लालच लोभ की स्वार्थ कहानी
एक सुबह मै जागा
उठकर बाहर था मै भागा
देखा भीड़-भाड़ खड़ी थी
हाथ में कुल्हाड़ी पड़ी थी
आये थे मुझे काटने
हरियाली सब लुटने
मै बोला चिल्लाया
हाथ जोड़ गिड़गिड़ाया
भैया मत काटो
मुझे मत लूटो
अरे!मै ठहरी बादल की रानी
मै देती वर्षा और पानी
और मुझे तुम लूट रहे हो ?
अंग-अंग को कूट रहे हो
अरे मै जिन्दा तो धरती जिन्दा
हरी भरी धरती वाशिंदा
सोचो काट कर क्या पाओगे ??
क्या प्रदुषण से लड़ पाओगे ???
प्रदुषण की मारी धरती पर
कौन बचेगा जिन्दा ??
मर जायेंगे रहनेवाले
नहीं बचेगा कोई वाशिंदा !!!.
सोचो मै क्या-क्या करता हूँ
मै देता पंक्षियों को प्रश्रय
अन्न जल तुमको देता हूँ
मै देता सांसों को जीवन
ठंढक भी मै पहुँचाता हूँ
बादल का संगी बनकर
वर्षा रानी को बुलबाता हूँ .
सूर्य की हानिकारक किरणों का
आघात ह्रदय पर सहता हूँ.
पर तेरे जीवन पर कभी भी
संकट नहीं आने देता हूँ .
CO2 को सोख-सोख कर
शुद्ध आक्सीजन देता हूँ
वाहनों के निकले धुयें से
बचने का कवच बनाता हूँ
पर तेरे स्वार्थ ने मेरे दिल में
छेड़ बड़ा कर डाला
मेरी ओजोन छतरी बिंध-बिंध कर
प्रदुषण का जहर शरीर में डाला
बोलो कैसे मै जीवन दूंगा ??
तुमसब को पालूंगा कैसे
जब CO2 की अधिकता से
तापमान धरती का बढ़ जायेगा
पिघल जायेंगे सौर ग्लेशियर
धरती पर प्रलय आ जायेगा
बाढ़, सुखाड़, भूखमरी से
बोलो कैसे तुम बच पोयोगे ??
मै कहता हूँ मत काटो
मुझे रहने दो, मुझे जीने दो
कभी बादल काले घुमड़-घुमड़ कर
नदियाँ नाले भर देते थे
पर आज नदियाँ सूख गयी स्त्रोतों से
धरती हो गयी सूखी बंजर
बोलो तुम क्या दोगे अगली पीढ़ी को
निर्जन बंजर जलविहीन जीवन
या तपती धरती जलते उपवन
क्या यही शिला मेरे सेवा का
पेड़ काटकर तुम दोगे ??
अतः मान लो अपनी हार
नहीं करो वृक्षों पर प्रहार .
अगर पेड़ लागाओगे तुम
सुख तुझे मै सब दूंगा
जीवन खुशियों से भर दूंगा
आयों आज ये प्राण करे
वृक्ष नहीं कटने देंगे
धरती के कण-कण आँगन में
हरियाली हम कर देंगे .....

सोमवार, मार्च 21, 2011

होली की हास्य व्यंग कविता

होली की हास्य व्यंग कविता
श्री सीमेंट चौराहे पर
भीड़ जुटी मस्तानो की
जब होली का चंग बजा
चौराहे पर हुरदंग मचा
तब शुक्ला जी पिचकारी उठायें
बीच भीड़ में नज़र आयें
जोशी जी पर तान पिचकारी
धीरे -धीरे कमर लचकाएं
बोले जोशी जी तुम भी आओ
संग-संग ठुमका लगाओ
पिए भांग की मस्ती में
दोनों आ गए गश्ती में
जोशी बोले मै नाचूँगा
मुन्नी बुलाओ तो ठुमका लगाऊंगा
ये सुनकर जे.के.जैन आये
मुन्नी बन वो खूब शर्मायें
तब चंग पर थाप लगी
अंग-अंग पर आग लगी
उधर से संजय जी आयें
थोडा झिझके थोडा मुस्काएं
फिर लगा चढ़ने होली की मस्ती
उतर गए जब सारी सुस्ती
बोले भैया होली खेलो
दिल के बंद दरवाजे खोलो
संजय जी की मस्ती देखकर
शर्मा जी भी कूद पड़े
हाथ गुलाल गालो पे मलकर
मुन्नी से वो गले मिले
तब मुन्नी ने काटी चिकोटी
शर्मा जी की खुल गयी लंगोटी
लिए लंगोटी शर्मा जी भागे
बाप-बाप करते वो आगे
बोले मुन्नी बदमाश बहुत थी
टूट गयी जो आश थी उनकी
फिर वापस शुक्ला जी आये
महफ़िल में खूब रंग जमायें
बोले " हवा" कुछ फगुआ गाओ
छोडो भांग कुछ और पिलाओ
कुछ और के चक्कर में
हवा जी फस गए घनचक्कर में
हवा जी की सारी हवा निकाली
भीड़ ने सारी पैग पी डाली
बोले अब मै क्या करूँगा
रात "शमा" से कैसे निबटूंगा
थप्पड़ तक तो सह लेता हूँ
इस बेलन से कैसे निबटूंगा
एक भी ठीक से पड़ गयी तो
तीन दिन मै उठ न सकूँगा
फिर उन्होंने एक राज खोला
क्यूँ रखते वो दाढ़ी वो बोला
खालो कितना मार बीबी से
दाढ़ी में सव छुप जाता है
छुप जाते है दाग थप्पड़ के
चेहरा खिला-खिला लगता है
नहीं विश्वाश पूछो शर्मा से
बाते कितनी ये गहरी है
बोलो जगमोहन इस बात में
सच्चाई कितनी छुपी है ??
तभी लिए रंगों की लाठी
ठुमक-ठुमक राठी जी आये
कोठारी जी के कोने पर
घुडनृत्य की महफ़िल सजाएँ
बोले मै तो नहीं हटूंगा
पावर लेकर यही रहूँगा
तभी चंग टोली निकल पड़ी
साहेब के बंगले चल पड़ी
अब वहां प्रेम -मनुहार होगा
थोड़ी छेड़-छाड़ थोडा फाग होगा
कुछ अच्छा मिलेगा खाने को
पर खाने पर संकट होगा
भीड़ -भाड़ में स्टाल पर
लोगो का खूब जमघट होगा
लोग भेखे पेट टूट पड़ेंगे
हाथो में वर्तन होगा
फिर मजलिश जमेगी मूर्खो की
मूर्खो का नामकरण होगा
रजनीकांत-विनय वाणी से
मूर्खो का नाम नयन होगा
जो एक साल तक सोचेंगे
गाली दे दे कोसेंगे
ऐसा नाम रखा क्यूँ तुने
इसी बात पर रोयेंगे
फिर ढूंढेंगे संपादक को
और बदला चुन-चुन कर लेंगे
पुरे एक साल तक संपादक
गायब रहेगा पन्नो से
पर अगली होली वो फिर आएगा
नया रूप वो दिखलायेगा
अब तुम भी खिसक लो यहाँ से रोशन
बंगले के पीछे दरवाजे से
ढूंढ़ रहे सब डंडा लेकर
शर्मा,शुक्ला जोशी जी
बहुत निपोरी दातें सबने
अब टूटेगी तेरी बतीशी जी ..

बुधवार, फ़रवरी 09, 2011

मोक्ष नगरी गया जी और फल्गु का किनारा

मै जब भी गया जाता हूँ  मेरा प्रयास होता है फल्गु नदी को देखता चलूँ . इसके खोये एहसास को महसूस करता चलु. दूर तक फैले रेत का निहारना सुखद एहसास से भर देता है और खासकर रेत पर मद्धम-मद्धम चलने का सुख... इसे छू कर महसूसना ऐसा मानो अभी-अभी सीता मैया का कोपभाजन बन भगवन राम से श्रापित फल्गु दतचित शांत हो गयी हो..अब यहाँ रेत ही रेत है.. सिकुड़ती फल्गु की किनारे से धारा रुठती हुई दूर और दूर होती जा रही हों...ये धारा का दूर होना सीता मईया के प्रकोप का असर है या धन लोलुप मानव समुदाय का पर फल्गु की उदासी बहुत कुछ बयाँ कर जाती है ...किनारे के हरे भरे सैकड़ो पेड़ काट दिए गए... कारन चाहे जो हो पर लगता है फल्गु में अब उतना जोश नहीं रह गया की कोई सिद्धार्थ वहां आकर "बुद्ध" बन सके ..हिन्दू धर्मस्थल के रूप में ख्यात विष्णु भगवान की पावन नगरी "गयाजी" ने भले ही सिद्धार्थ को गढ़ा हो, ज्ञान दिया हो पर खुद को अबतक नहीं बदल पाया ...यदा कदा शिव और बुद्ध खुद ही म्यान से निकल कर खड़े  हो जाते है आमने सामने .छोड़े इन सब बातों को मुद्दे की बात करे उस अन्तः सलिला फल्गु की बात करे जो वर्षो से इस गयाजी की आन बान शान रही है.....मुझे कई बार विष्णुपद जाना हुआ है लेकिन संयोग कहे या दुर्भाग्य ..जाना हमेशा किसी मृत आत्मा के दाह संस्कार के लिए ही हुआ ..पावन कहे जानी वाली इस फल्गु में इसके परिसर में सचमुच एक अद्भुत शांति, सिर्फ है नहीं मिलती है और सारी भौतिकता ताक पर रखकर व्यक्ति ऐसा महसूस करता है मानो कोई अलग दुनिया से उसका नाता जुड़ गया हो ..दुनियादारी से विरक्त, लोभ लालच से परे, माया मोह से दूर एक ऐसी दुनिया जहाँ भक्ति.विरक्ति, और अदृश्य शक्ति आप को कुछ अलग होने के भाव से भर देती है ....तब मुझे " ऋषि वाल्मीकि की वह कहानी याद आती है आखिर जिस कुटुंब के लिए चोरी करू वो ही मेरे पाप का भागी बनने को तैयार नहीं तो धन किसके लिए कमाया जाए  ???" यहाँ आने पर इस तरह की सारी बाते अचानक ही जेहन को कुरेदने लगती है  मेरे लिए यहाँ आना पोलिग्राफी टेस्ट से गुजरना ही होता है...अपनी गलतियों, कृत्यों और उनसे जुडी सारी नकारात्मकता आसुओं और मौन के जरिये कब स्वतः निकल जाती है मुझे पता ही नहीं चलता. चारो ओरे मची आप-धापी, रोना धोना, दाह-संस्कार  देखकर मन तो जरुर व्यथित होता है पर लोलुपता, यथार्थता का बोध भी यही होता है......कहा जाता है की विभिन्न प्रेत योनियों से मुक्ति देने वाले गयाजी में आजतक कभी ऐसा नहीं हुआ की फल्गु के श्मशान तट पर, इस माया नगरी में कोई भी दिन बिना शवदाह का गुजरा हो .. यह कोई श्राप है या मुक्ति मोक्ष की लालसा में आत्मा की नश्वरता का कोई पाक सन्देश मै नहीं जनता पर यह जरुर है की कभी बुद्ध को भी आपनी लालसा मिटाने के लिए यहाँ आना पड़ा था...आप भी कभी समय निकलकर जब मन निर्मल करना हो यहाँ आयें ...अद्भुत शांति मिलेगी इस मोक्ष नगरी में........