बुधवार, जुलाई 29, 2015

गंगा के तट पर उपजी एक प्रेम कथा का कुछ भाग


याद है तुझे ? जब पहला ख़त भेजा था मैंने ..!
हाँ !!
तब भी क्या समय था ! तेरे शब्दों और ख्यालों में ही तो जीता था मैं ..
!!!!
कितने ही पत्र लिखे मैंने ...!
आरजु विनती कर करके थक गया था मैं..!
पर तुम कहाँ सुनती थी ..?
पर आज देखो न ...साथ हो तो लग ही नहीं रहा ..की तुम (वही) हो
कैसे झिड़ककर चल देती थी तब....माय फूट कहकर ..!
आँखों में नमी लिए उदास सा फिर कुछ लिखने लग जाता था मैं .. एक आस के साथ..!
जानती हो ...?
तुम्हारी माय फूट कहने का जो स्टाइल था न उफ़्फ़!!!
गुस्सा दिखाते हुए..जब पैर पटक कर, झिड़कते हुए तुम निकल जाती थी और मैं गीले आँखों से तड़प उठता था।
सच कहूँ तो तुम्हारा "माय फूट" कहने की जो अदा थी न उसी से मुझे प्यार हो गया था।
यह सुनना की फिर कुछ लिखकर पकड़ा देता था नीरू को ...
मनुहार ..मान के साथ दे देना उसे ..!
मेरी आँखों की नमी देखकर वो भी मना नहीं कर पाती थी ..!
पर तुम भी न कितना अभिनय करती थी ...?
पहले पूरा पत्र पढ़ना...पढ़ते ही तेरा "हूँ" करके पैर पटकना ....
तुम्हें कैसे पता यह सब ..?
नीरू ही तो बताती थी यह..
यही जो चीज थी न जिस से मुझे लगता था की कहीं न कहीं कुछ तो अंकुरित हो रहा है मेरे लिए।
अच्छा ...!!
जब प्यार नहीं था तो मेरे पत्र पढ़ती क्यों थी ..?
जानते हो ..!
आज पहली बार कह रही हूँ तुमसे ...!
सचमुच में मैं तुमसे प्यार करने लगी थी ...!
तुम्हारे शब्द भी न ..!!!
उफ़्फ़ वेवश कर देते थे मुझे ..
और यही मैं नहीं चाहती थी कि वेवश सा दिखूं किसी के आगे ...!
पैर पटककर निकलना अभिनय मात्र नहीं था सिर्फ ..!
मेरे वजूद को लील जाने वाला अहं था मेरा..!
मेरा अहं ..मेरा गुरुर का कारण ये पुरुष ही तो थे ..
उनके निगाहों की टकटकी से उपजी हुई ..झूठा दर्प ...
इसे मैं अब समझ पा रही हूँ ..!
पुरुषों का ऐसे एकटक देखना मुझे अच्छा लगता था।
इसके बिना कहाँ मैं ...?? कोई देखे न तो बेचैन हो जाती थी मैं ..! मुझे लगता था मेरे इर्द गिर्द ही तो दुनिया है इन पुरुषों की ।
पागलपन के हद तक तड़पते देखना चाहती थी मैं इन्हें..
पर यह जो तुम्हारे भेजे ख़त ...उनमें लिखे शब्द ऐसे थे ..की मैं बेचैन हो जाता था।
मेरे अहं ...वज़ूद के निष्कर्षण के ध्रुव थे यह शब्द।
पर आज कहूँ नरेन् ..!!
शायद तुम मेरे लिए ही बने थे ...
तुम न होते तो मैं भी न होती..!!
तुम... "तुम" हो
और मैं ... "मैं"...!
यही कहा करते थे न !
पर "तुम" न होते
तो हम भी न होते !!
न यह मेरा अहं
अब मैं इसलिए हूँ
की तुम हो ....
टूट कर कहाँ कोई जी पाता है किसी से ??
साथ छोड़कर कहाँ कोई जा पाता है कभी ..??
यादों को पकड़े रहते है साथ साथ
जीवन भर..
सांसपर्यन्त...
फिर एक समय आएगा
जब न तुम "तुम" रहोगे
और न मैं "मैं" रहूँगा..!!
"मैं" होना अहं का होना है बस ..!
पर "हम" होना सब होना है ..!
जीवन चक्र के अगली चरण की एक कड़ी..!!
.....राकेश
क्रमशः
— feeling गंगा तट की प्रेम कथा का संवाद दृश्य. 

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