मंगलवार, अगस्त 18, 2015

रेत के भुरभुराहट की तरह नहीं ढ़हता प्रेम ....!!

तुम सिर्फ रेत नहीं हो
जो फिसल जाओगे वक्त के साथ...

तुम वह भी नहीं
जो ढ़ह जाता है
एक छोटी सी चोट से...

या वह
जो भुरभुरा कर
बदल लेता है अपना वजूद...

तुम हवा भी नहीं हो
जो बहा ले जाओगे हमें
इस समंदर से दूर...

कि...
सागर के प्रेम से पगा हूँ मैं

रत नमी से इस कदर

कि...
तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते

तुम सूखा भी नहीं सकते
धूप में मुझे

एहसास से इस कदर तीता हूँ मैं
कि...
तुम भी गीले हो जाओगे
मेरे साथ साथ

तुम मुझे बहा भी नहीं सकते
क्योंकि मैं जुदा नहीं होना चाहता
तुमसे कभी
संग संग चलना चाहता हूँ अंत तक

रहता हूँ तुम्हारे वजूद के साथ ही

हां! अगर मैं मिटूं
या बहूँ
या सुख जाऊ

तो समझ लेना

प्रेम का झरना सूख गया होगा मेरे अंदर
या कोमा में चली गयी होगी याद मेरी
या सूली पर चढ़ा दी गयी होगी फिर कोई मोहब्बत
या चुन दिया होगा किसी मुग़ल ने फिर से
...........................................

कुछ नहीं है मेरे पास...
सिवाय तेरे...!

यह जो "तुम" हो न ...
यही तो ख़ास है
मेरी कुल जमा पूँजी
मेरा-तुम्हारे का एहसास से भरा
बस.....!

--राकेश पाठक

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