मैं अरण्य की धुंध हूँ..
मैं हूँ तेरे प्रार्थना की आहुति..
मैं ज्ञागवल्लक की स्मृति हूँ..
और अहिल्या का श्राप..
अंधेरी गुफाओं में उकेरी हुई आयतें
एलोरा की यक्षिणी
खजुराहो की सृजनी.
भरतनाट्यम की एक मुद्रा लिए दासी
सूथी हुई कंदराओं का तिलस्मी स्याह पक्ष भी..
बुद्ध और आनंद का उन्माद हूँ मैं..
जो व्यक्त हुआ था धम्म के चवर में..
विपश्यना का अथर्व रखे
यज्ञ की वेदी हूँ..
धधकी हुई हवन कुंड हूँ..
होम की हुई धूमन गंध...
समिधा की लकड़ी..
जिह्वा से अभिमंत्रित शब्द
सस्वर उच्चारा हुआ मंत्र ...
भिक्षु को मिला दो मुट्ठी अन्न..
कान में दिया हुआ गुरुमंत्र..
उंगलियों में सिद्ध हुआ ऊं ओह्म
आंखों के परदे से हटा कर देखो यह तिलिस्म
कुंड की अग्नि में एक और आहुति दी है हमने भी ईश्वर..!!
व्यक्ति हमेशा खुद से लड़ता रहता है अपने विचारो से लड़ते, उलझते कभी खुद का खुद से ही टकराव की स्थिति में पाता है वो हमेशा चाहता है खुद से खुद को आजाद करना.....विचारो को नित्य संघर्ष काले पीले अक्षरों के रूप में.... इस इडियट्स के नए ठिकाने पर मिलेगे...
बुधवार, अक्टूबर 25, 2017
अरण्य में स्त्री
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें