बुधवार, नवंबर 30, 2016

प्रतिरोध की कविता

प्रतिरोध की कविता
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यह कविता नहीं है ..
यह नाटक भी नहीं है..
यह कविता और नाटक के बीच झूल रही रौद्र बतकही है ...
इसमें पात्र तो है पर कोई अभिनेता नहीं.. और न हीं अभिनय..

नाटक के पात्र की तरह
एक अदना सा,छोटा आदमी
प्रवेश कर..
जब अभिनय की भंगिमा शुरू करता है.. तब हमसब हतप्रभ, भौचक्का हो चुपचाप तमाशा देखते हैं ..
कब यह तमाशा-किस्सागोई
सच्चाई के बेहद करीब
यथार्थ में ले जाता है
हमें पता ही नहीं चलता ...

लोग दिखते हैं ..
भीड़ भी दिखती है ..पर सब निहत्थे..
किसी के हाथों में बंदूकें नहीं थी ...!
न हीं खंजर ...!
और न हीं नश्तर..
जो डरा सके किसी को ...!
वह दुश्मन की तरह लग रहे थे..पर थे नहीं...!
उनके दुश्मन थे कई..
सरकारें भी उनके खिलाफ थी..
क्योंकि वो सरकार की बात नहीं करते थे...
गण के उस हाशिये के हिस्से की बात करते थे..
जहाँ सरकार नहीं पहुँच रही थी..

जंग में सारी आताताई सेना झोंक दी थी सरकार ने उनके खिलाफ..
पुरे खलुस और मरहूद के साथ...

उस निहत्थे मानुषों के विरुद्ध..
सरकार ने तलवारें तान रखी थी..
मिसाइलों का मुख भी उसकी ओर था.. समस्त राजशाही की ताकत उनके खिलाफ खड़ी थी
पर वे डिगे नहीं..
और न हीं हारे--
और न हीं टूटे...!

उनकी आवाज में इतनी असीम ताकत थी
कि पुरा गण खड़ा था उनके साथ
निहत्था ही...!
उस आतातायी, तानाशाही सत्ता के खिलाफ...
जो विरोधियों को कुचलने में मार्क्सवादियों से भी क्रूर थी...
हवा में उठे हरेक हाथ को काट दिया करता था वो..
उस क्रूर आतातायियों के कानों ने हमेशा सुने थे ...
जयकारों की आवाज..
चाटुकारों की आवाज..
लोलुपकारों की आवाज..
व्यापारों की आवाज...
पर...!!
आज उस निहत्थे के आवाज के खिलाफ..
सेना चुप थी---गण बोल रहा था...!
राजा चुप था--प्रजा बोल रही थी...!
मंत्री चुप थे-- परिषद् बोल रही थी...!
उन निहत्थों की आवाज में
इंकलाब थी उस देश की...
जहाँ बन्दूकें बोल रही थी जनाब...!!

मंगलवार, अगस्त 18, 2015

रेत के भुरभुराहट की तरह नहीं ढ़हता प्रेम ....!!

तुम सिर्फ रेत नहीं हो
जो फिसल जाओगे वक्त के साथ...

तुम वह भी नहीं
जो ढ़ह जाता है
एक छोटी सी चोट से...

या वह
जो भुरभुरा कर
बदल लेता है अपना वजूद...

तुम हवा भी नहीं हो
जो बहा ले जाओगे हमें
इस समंदर से दूर...

कि...
सागर के प्रेम से पगा हूँ मैं

रत नमी से इस कदर

कि...
तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते

तुम सूखा भी नहीं सकते
धूप में मुझे

एहसास से इस कदर तीता हूँ मैं
कि...
तुम भी गीले हो जाओगे
मेरे साथ साथ

तुम मुझे बहा भी नहीं सकते
क्योंकि मैं जुदा नहीं होना चाहता
तुमसे कभी
संग संग चलना चाहता हूँ अंत तक

रहता हूँ तुम्हारे वजूद के साथ ही

हां! अगर मैं मिटूं
या बहूँ
या सुख जाऊ

तो समझ लेना

प्रेम का झरना सूख गया होगा मेरे अंदर
या कोमा में चली गयी होगी याद मेरी
या सूली पर चढ़ा दी गयी होगी फिर कोई मोहब्बत
या चुन दिया होगा किसी मुग़ल ने फिर से
...........................................

कुछ नहीं है मेरे पास...
सिवाय तेरे...!

यह जो "तुम" हो न ...
यही तो ख़ास है
मेरी कुल जमा पूँजी
मेरा-तुम्हारे का एहसास से भरा
बस.....!

--राकेश पाठक

बुधवार, जुलाई 29, 2015

गंगा के तट पर उपजी एक प्रेम कथा का कुछ भाग


याद है तुझे ? जब पहला ख़त भेजा था मैंने ..!
हाँ !!
तब भी क्या समय था ! तेरे शब्दों और ख्यालों में ही तो जीता था मैं ..
!!!!
कितने ही पत्र लिखे मैंने ...!
आरजु विनती कर करके थक गया था मैं..!
पर तुम कहाँ सुनती थी ..?
पर आज देखो न ...साथ हो तो लग ही नहीं रहा ..की तुम (वही) हो
कैसे झिड़ककर चल देती थी तब....माय फूट कहकर ..!
आँखों में नमी लिए उदास सा फिर कुछ लिखने लग जाता था मैं .. एक आस के साथ..!
जानती हो ...?
तुम्हारी माय फूट कहने का जो स्टाइल था न उफ़्फ़!!!
गुस्सा दिखाते हुए..जब पैर पटक कर, झिड़कते हुए तुम निकल जाती थी और मैं गीले आँखों से तड़प उठता था।
सच कहूँ तो तुम्हारा "माय फूट" कहने की जो अदा थी न उसी से मुझे प्यार हो गया था।
यह सुनना की फिर कुछ लिखकर पकड़ा देता था नीरू को ...
मनुहार ..मान के साथ दे देना उसे ..!
मेरी आँखों की नमी देखकर वो भी मना नहीं कर पाती थी ..!
पर तुम भी न कितना अभिनय करती थी ...?
पहले पूरा पत्र पढ़ना...पढ़ते ही तेरा "हूँ" करके पैर पटकना ....
तुम्हें कैसे पता यह सब ..?
नीरू ही तो बताती थी यह..
यही जो चीज थी न जिस से मुझे लगता था की कहीं न कहीं कुछ तो अंकुरित हो रहा है मेरे लिए।
अच्छा ...!!
जब प्यार नहीं था तो मेरे पत्र पढ़ती क्यों थी ..?
जानते हो ..!
आज पहली बार कह रही हूँ तुमसे ...!
सचमुच में मैं तुमसे प्यार करने लगी थी ...!
तुम्हारे शब्द भी न ..!!!
उफ़्फ़ वेवश कर देते थे मुझे ..
और यही मैं नहीं चाहती थी कि वेवश सा दिखूं किसी के आगे ...!
पैर पटककर निकलना अभिनय मात्र नहीं था सिर्फ ..!
मेरे वजूद को लील जाने वाला अहं था मेरा..!
मेरा अहं ..मेरा गुरुर का कारण ये पुरुष ही तो थे ..
उनके निगाहों की टकटकी से उपजी हुई ..झूठा दर्प ...
इसे मैं अब समझ पा रही हूँ ..!
पुरुषों का ऐसे एकटक देखना मुझे अच्छा लगता था।
इसके बिना कहाँ मैं ...?? कोई देखे न तो बेचैन हो जाती थी मैं ..! मुझे लगता था मेरे इर्द गिर्द ही तो दुनिया है इन पुरुषों की ।
पागलपन के हद तक तड़पते देखना चाहती थी मैं इन्हें..
पर यह जो तुम्हारे भेजे ख़त ...उनमें लिखे शब्द ऐसे थे ..की मैं बेचैन हो जाता था।
मेरे अहं ...वज़ूद के निष्कर्षण के ध्रुव थे यह शब्द।
पर आज कहूँ नरेन् ..!!
शायद तुम मेरे लिए ही बने थे ...
तुम न होते तो मैं भी न होती..!!
तुम... "तुम" हो
और मैं ... "मैं"...!
यही कहा करते थे न !
पर "तुम" न होते
तो हम भी न होते !!
न यह मेरा अहं
अब मैं इसलिए हूँ
की तुम हो ....
टूट कर कहाँ कोई जी पाता है किसी से ??
साथ छोड़कर कहाँ कोई जा पाता है कभी ..??
यादों को पकड़े रहते है साथ साथ
जीवन भर..
सांसपर्यन्त...
फिर एक समय आएगा
जब न तुम "तुम" रहोगे
और न मैं "मैं" रहूँगा..!!
"मैं" होना अहं का होना है बस ..!
पर "हम" होना सब होना है ..!
जीवन चक्र के अगली चरण की एक कड़ी..!!
.....राकेश
क्रमशः
— feeling गंगा तट की प्रेम कथा का संवाद दृश्य. 

एक पिता का पत्र... पिता के नाम .....!!!


फादर्स डे पर पिता को यह पत्र और कविता लिखी थी। आज यहाँ .......!!!
आज फ़ादर्स दे है। पिताजी आज मैंने आपको कोई विश नहीं किया... न बधाई दी। फोन किया भी तो सिर्फ प्रणाम कहकर हाल चाल पूछ कर रख दिया बस इतना ही तो कह पाता हूँ इन तारीखों में। बचपन से लेकर आजतक कभी भी विश नहीं कर पाया आपको। मुझे दिखावा ही तो लगता रहा है यह सब। बनावटीपन लगता है ये सब करना मुझे ....आपके साथ। मेरे लिए तो रोज ही फादर्स डे है तो किसी दिन विशेष को ही क्यों?? कभी भी मैं सहज कहाँ महसूस कर पाया इन तिथियों को..? शायद आप भी कभी उतने सहज नहीं लगे...बस जो कह दिया स्वीकार कर लिया। इस मामले में अर्चना सबसे अव्वल रहती थी ...और आज भी है..पिताजी लगभग रोज आपसे बातें होती है और रोज ही पूछता हूँ आपसे कैसे है ? और हमेशा की तरह वही जबाब की ठीक हूँ बिल्कूल..!
पिताजी मैं 2005 से ही घर से बाहर हूँ। नौकरी और कैरियर के चक्कर में। उलझता चला गया लगातार किसी न किसी कार्य में । फिर शादी...बच्चे ...उनकी ज़रूरतें और अब अपनी नयी गृहस्थी सवांरने में उलझा हूँ। आप अकेले पड़ गए है अब। यही कहते है न ?? छोटा अनीश भी कहाँ है अब गावँ में ...वो भी दूर है कानपूर में... नित्य के झंझटों में फंसा पड़ा हुआ... मुझे मालूम है की जब दो दिन फ़ोन नहीं करता हूँ तो मम्मी कितना बेचैन हो जाती है ...चिंतित हो कैसे कहती है मन बड़ा उद्विग्न है आज। बात कीजिये न ...! तब आपलोगों के जुड़ाव की तीव्रता और स्नेहासिक्त हाथ की नमी यहाँ महसूस कर मैं भी तो बेचैन हो जाता हूँ।
पिताजी आप जानते है कि मैं आप से कभी कुछ नहीं कह पाता था और न आज भी कह पाता हूँ....यहाँ तक अपने मन की बात भी । माँ ही माध्यम होती थी कुछ कह पाने का और शायद आज भी वैसा ही कुछ है मेरे भीतर। कुछ कह पाने का झिझक आज भी उसी रूप में है। न जाने क्यों कुछ भी मांग नहीं पाता आपसे..? ऐसे स्वतः इतना कुछ देते रहे है कि कभी जरुरत ही नहीं हुई।
आज जब दो बच्चों का पिता हूँ तब समझ पा रहा हूँ कि बेटे की ममता और दूर होने की तड़प क्या होती है। जुड़ाव क्या होता है और उस जुड़ाव में दूरी कितना कष्ठप्रद होता है। यह कविता शायद उसी बेचैनी, कष्ठ और मनोभाव से उपजी हुई है जो एक पिता अकेले में महसूस करता है। जो मैं कभी कह नहीं पाया वह इस कविता में व्यक्त हुई है ...एक पिता का दर्द और तड़प जो मैं अब समझ पाया ...एक पिता होने के बाद....!
पिता ....!!
रोज सुबह सुबह मेरी चीजें ग़ुम हो जाती है
कभी सिरहाने रखा चश्मा ..
तो कभी तुम्हारी दी हुई घड़ी..
या किंग्सटन का वह पेन..
या चाभी का वह गुच्छा ..!
जिसमे तेरे बचपन के खिलौने का बॉक्स अंदर बंद पड़ा है..!
पहले वो चश्मा ही है जो
सुबह उठते ही सिरहाने ढूंढता हूँ..!
ताकि उजास के बीच पढ़ लूँ ..
तुम्हारा भेजा कोई ख़त..
या कोई मेल..
या एस एम् एस..
पर हर दिन की तरह ही
टल जाता है ..
अगली उम्मीद पर .
या अगले दिन के इंतज़ार में ..!
यह चश्मा भी है न..!
तेरी मीठी याद से ही तो जुड़ा है..!
याद है..!जब डॉक्टर ने कहा था
चश्मा ले लीजिये अब
तब तपाक से तुमने कहा था ..
मेरे गुल्लक में बहुत से पैसे है
उसी से चश्मा ख़रीद लो न पापा ...!!
बर्थ डे गिफ्ट की तरह ..
जो देते रहे हो हर साल मुझे..!
आज मेरी ओर से ले लो न पापा..!!
मुस्कुरा कर तेरे इस भोलेपन पर मर मिटे थे हम
यही तो है तेरी यादों का इडियट बॉक्स...
जो अक़्सर जेहन में आते ही कोर गीले हो जाते है मेरे ..!!
पर न जाने क्यों....
दूरियों से..अपनों का संवाद भी...
कितना दूर होता जा रहा है अब...!!
जब गए थे...तो रोज ही बात होती थी ..!
पर दूरियों..ने शायद पीढ़ियों के बीच
एक लकीर खींच दी हो ..!
व्यस्तताओं के दरमियाँ की ...!!
जानते हो
रोज सुबह सिरहाने और भी कई चीजे गुम हो जाती है मेरी
तुम्हारी दी हुई वह घड़ी ..
और उधार लिया हुआ या माँगा हुआ वक्त भी..
दोनों मुझसे आँख मिचौली करते है रोज..!
पर मैं हूँ की वक्त को ही बाँध रखा है ...
घडी की सुइयों के साथ..
यादों के बीच अटकाकर ..
पर कब तक ??
कोई न कोई घड़ीसाज आकर
बंधे हुए वक्त को फिर से दुरुस्त कर देगा..!
रह जायेगी तो फिर वही इडियट बॉक्स में जमा तुम्हारी यादों का गुणसूत्र
जिस में निषेचन का न तो कोई भविष्य है
और न ही हम दोनों के इंतज़ार के इंतहा का कोई अंत ही इसमें..!
टेबल के दराज में फड़फड़ाते पीले लिफाफे पर दर्ज
होस्टल का तेरा अस्थायी पता का हरेक हर्फ़......
बेतरह याद है आज भी मुझे...!
इंतज़ार भी है किसी ख़त का ...
आ जाये शायद फिर ??
चीजे जरूर गुम हो रही है ...
और रोज अपनी जगह से
एक परत भी स्मृतियों का उधेड़ दे रही है
पर अगर कुछ गुम नहीं हो रही है तो वो है तेरी अल्हड़पन की यादें
शरारतें और बुना हुआ याद सहर...!!
जानते हो ..माँ रोज कहती है बदल लो अपनी आदतें ...
अपने जीने के तरीके
आखिर क्या है जो रोज ढूंढते रहते हो
अनु की आलमारी में ..
जानते हो तेरी सभी चीजे कैसे करीने से लगा रखी है ज्यों की त्यों ...
जहाँ है वही है आज भी ..
वह तेरी ड्राइंग की कॉपी
जिसपर स्कूल के टीचर ने कभी एक्ससिलेन्ट लिखा था।
वह ट्रैक शूट भी
जिसे पहनकर तुमने कॉलेज में शील्ड जीती थी
शील्ड को रोज ही छूकर तलाशते है तुम्हें ..
शायद तुम्हें याद नहीं हो
पर जब तुम छोटे थे
मेरी उंगली पकड़ जिद्द पर अड़ जाते थे
गुड़ में पगी गुझिया के लिए
बिना लिए मानते कहाँ थे तुम ..?
वारिश हो या धूप
रोज का यह नियम था तेरा
आज भी रोज गुजरता हूँ
हलवाई के उस दुकान के पास से
पर कुछ भी नहीं खरीद पाता ...सिवाय आँसू के ..
जब वापस घर लौटता हूँ
तेरी माँ भी सुना देती है दस बात...
ओह ...!!!
और फ़फ़क पड़ती है वो भी
कुछ कहते हुए...
उन्हीं यादों से गुजरते हुए ....
एक सिलसिला सा है यह रोज का..
आलमारियों में भरे है गुब्बारों के पैकेट
और हैप्पी बर्थ डे वाली रंगीन मोमबत्तियाँ भी
अमूल के डब्बे में रखी
मॉर्टन टॉफी का एक्सपायरी डेट कब का निकल चूका है रखे रखे ही
पर पड़ी है यथावत यो ही ....!
तह की हुई गुजरी यादों के साथ
जीवन गुजारना कितना मुश्किल होता है
एक पिता के नाते मैं अब जान पा रहा हूँ
स्मृतियों के ऊँची दीवारों में कैद
आख़िर कब तक जी पायेगा ..?
बच्चा होता हुआ तेरा यह बाप ...
कभी कभार ही सही एक ख़त लिख दिया करो
या कोई मेसेज भेजकर ही ढूंढ़ लेना अपने
पापा का मुस्कुराता चेहरा
जो कभी तेरे स्कूल के बाहर
धूप में खड़े हो
हँसता हुआ मिल जाता था
शायद
तब मेरी कोई भी चीज गुम नहीं होगी
कही से ...कभी भी ...!

हाँ मैं बेटी ही हूँ जो मार दी जाती हूँ......!!!!!


एक रोज सोया ही था
कि..
रुई के फाहों से घर भर गया था मेरा...
सफ़ेद सफ़ेद...
नर्म नर्म...
मुलायम मुलायम...
चारों ओर...
और जागते ही
खो गया था मैं
झक सफ़ेद उन फाहों में...
ये सफ़ेदी
ख्बाब थे कभी यहाँ के...
स्वर्ग था धरती का यह...
लग जाता था बाहर जमघट
इन उजले फाहों के साथ ही
इन बर्फ से हूरों का बूत बनाकर
खूब बातें करते थे....परियों के देश की...
कि कैसे भेष बदलकर लुटेरा परियों को ले जाता था......छीनकर यहाँ से दूर ......!
रख आता था अँधेरे परकोटे पर 'पर' काटकर...
फिर न तो..वह भाग पाती थी और न ही
जी पाती थी
रो रो कर जीना उनकी नियति बन जाती थी...!
हम रोज सोचते थे
कभी उन परियों के बारे में...
तो कभी उस राजकुमार के बारे में...
असीम ताकतों से भरा...
सुन्दर सजीला नौजवान...
हवा से बात करते घोड़ों पर सवार
दक्ष तलवारबाज
जादुई ताकतों से लैश
जो रहबर की तरह आएगा
और बचा ले आएगा उन परियों को
जो दूर कहीं .....
कैद कर रखी गयी है अबाबिलों द्वारा...!!
ये जो सफ़ेद फाहे बरसते है न...??
हर साल आसमान से...
दरअसल यह
उन परियों के आँसू भरे संदेशे होते थे
उस राजकुमार के लिए...
माँ भी यही किया करती थी हर एक साल
बर्फ गिरते हुई घरों के बाहर
जमघट लगा...
बनाने लगती थी
पुतले
परियों और राजकुमार के किस्सों वाले
वैसे ही बूत......!
कि...
इन बुतों से निकलकर
राजकुमार ले आएगा परियों को वापस
उन दानवों से छुड़ाकर
यहाँ
उनके आते ही फिर यह धरा
स्वर्ग बन जाएगी ...!
पर शायद अब ऐसा नहीं हो पायेगा...
एक एक कर
सारी परियों को लीलता जा रहा है यह दानव
अब तो परियाँ जन्म भी नहीं ले पा रही
मार दी जा रही है कोख में ही..!
हर घर में परियों को निगलने वाला एक दानव पहले से ही मौजूद जो है ...!!
एक समय आएगा
कि न तो यहाँ परियाँ होंगी ....!
और न ही...
बूत में छुपी
परियों की कहानियां सुनाने वाली कोई माँ
तब फिर कोई भी तो नहीं होगा यहाँ...?
उन आवाजों को सुनने के लिए
हम भी नहीं....
और न ही हमारी पीढ़ी.....!!!
--राकेश पाठक

सोमवार, मई 25, 2015

वामियनों के देश में प्रेम

यह कविता इस लिए लिखी गयी क्योंकि प्रेम और शील वाले देश भारत में... स्नेह और सौहार्द वाले इस मुल्क में अब सर्वाधिक पहरा प्रेम करने वालों पर है. अपने पुरातन मूल्य, धार्मिक आख्यानों का हवाला देकर जो तांडव करते है वो निरंतर प्रगति वाले मुल्क के लिया अच्छा नहीं है.. विकाश और बदलाव साथ साथ हमें भी अपने विचारों से और उदार होना चहिये। 
ऐ सुनो..!!   
नए हो ..?? नहीं ..!!
हाथ में ..चमकती पन्नियों में 
क्या है तेरे पास ..??
दिखाओं...??
लाल गुलाब ...!!!
मार दिए जाओगे...
काट दिए जाओगे...
टाँग देगें तुझे ...!
हदीस का हवाला देकर
सरेआम ...!!
देश में उसेमाओं ..उल्लेमाओं ने
लोगों के हाथों में लाल कटारे थमा रखी है..
रक्तरंजीत---!!
प्रेम है इन्हें सिर्फ अदम से..
वहशीपना से...सनकीपना से..
वन..बन्दूक..तलवारों से...
इल्म है इन्हें इत्लाफ़ से सिर्फ..
जाओं,भागों यहाँ से
प्रेम का गुलाब...!!
अमन का आंदोलन...!!
प्यार की ख़ुशबू...!!
बंद है "वामियानो"के देश में ...!!
"बजरंगियों" के देश में ...!!
"दामनियों" के देश में ..!!
हाँ ..!!
जानता हूँ भाई....
तो क्यों .. आये हो मरने ..?
मरने नहीं ...!! मारने आया हूँ..
मुल्क के अबाबिलों को
इन लाल गुलाबों से
इनकी मादक सुगंध के नशे में
कहाँ रह पायेगा प्रेम का काफ़िर कोई ..??
खेतों में लहलहाता गुलाब चाहता हूँ..
फूलों का मुस्काता मिज़ाज चाहता हूँ ..
प्रेम में रीता भींगा तन मन चाहता हूँ..
पग पग दिखता अमन चाहता हूँ..
अच्छा ...!!!
तुम सपने बेचते हो ..??
बेचोगे यहाँ ...???
दुकानें बंद है सपनों की यहाँ..
मोटी हदीस के जंजीरों से..
जालों का संसार है यहाँ वर्षों से..
सपने देखोगे ...!!
तो चाक दिए जाओगे
ख़ाक दिए जाओंगे
अंतिम बार कहता हूँ ...
चले जाओं यहाँ से ...
.........................
.........................
सन्नाटा..
एक शान्ति
रोज़ रोज़ मरने से अच्छा है-
आज मर जाना ..काफ़िर बनकर
सपने और प्रेम की ख़ातिर...!!!

शनिवार, अप्रैल 11, 2015

क्या लिखू !!!!

बहन अनु मेरे लिए शब्द गूथने की एक कड़ी हो तुम.....!!! अरसे बाद आज इस ब्लॉग पर दुबारा लिखने की शुरुआत भी इसी के प्रेरणा से … 
मौका था भावुक मन के चितेरे कवि सुरेश चन्द्रा जी के  जन्मदिन का..... उसी के बधाई स्वरुप लिखी इस चंद पंक्ति का थोड़ा विस्तारीकरण है यहाँ  में। 
क्या लिखू 
शब्द लिखूं
गद्य लिखूं
सच लिखूं
यक्ष लिखू
गीत लिखूं
लफ्ज लिखू
शेष लिखूं
अशेष लिखूं
ख़ुशी लिखूं
हँसी लिखूं
उम्र लिखूं
ताउम्र लिखू
भाव लिखूं
आव लिखू
प्रीत लिखूं
प्यार लिखूं
मीत लिखूं
रीत लिखूं
धुन लिखूं
गुण लिखू
देव लिखूं
दास लिखूं
शील लिखूं
भील लिखू
इंद्र का दरबार लिखूं
गीता का सार लिखू
वीणा का तार लिखूं
बांसुरी का रंध्र लिखूं
गोविन्द का छंद लिखूं
मौला का मकरंद लिखूं
राधा का रास लिखूं
मीरा की आस लिखूं
साँस लिखूं
खास लिखूं
पाश लिखूं
काश !!लिखूं...!!!

मंगलवार, अगस्त 19, 2014

आखिर बहन इरोम तेरी जीत हुई!!!!

यह पोस्ट बहन इरोम शर्मीला को उनके मानवाधिकार के हक़ के लिए किये जा रहे लम्बी भूख हड़ताल के समर्थन में संवेदनशील भारतीय लोकतंत्र के नागरिक होने के नाते वर्ष 2009 में भाई आवेश तिवारी के पहल से उनके ही ब्लॉग sistersharmila.blogspot.in के लिए मेरे द्वारा लिखा गया था। आज जब मणिपुर की एक अदालत ने बहन इरोम शर्मीला को रिहा करने का फैसला लिया है तो लगा की इसे पुनः पोस्ट की जाये। मई 2009 में लिखी गयी यह पोस्ट पुनः आपके समक्ष है।

पिछले सप्ताह "कतरनें" में "मेरी बहन शर्मीला" पढ़ा। किसी भी संवेदनशील, मानवीय ह्रदय को झकझोर देने लायक सारी बाते थी इसमें । इस आलेख के लिए आवेश जी बधाई के पात्र है। इसे पढ़ते ही मन उद्वेलित हो उठा। व्यथित मन इतना ज्यादा कभी नहीं रोया था। तत्काल ही आवेश जी से बात हुई और शर्मीला के समर्थन में कुछ करने की इच्छा। मजदूरों के हक़ और अधिकार के लिए लड़ी गई लडाई के १२० वीं वर्षगाठ से अच्छा और क्या हो सकता था इसी का परिणाम है की आज यह ब्लॉग आपके सामने है ...........उसी रात लिखी एक कविता की पहली पोस्टिंग भी हुई।
इस ब्लॉग के माध्यम से हमें उन मुद्दों को उठाना है जो मानवाधिकार हनन से जुड़े हो तथा उन जैसे लोगो को एक मंच प्रदान करना है जिन्हें लगता है की उनकी आवाज गूंगी-बहरी सरकार और मीडिया नही सुन रही है वो अपना दर्द यहाँ बाँट सकते है। इस ब्लॉग से मैं उन सभी लोगो को आमंत्रित करता हूँ जिन्हें देश प्रिय हैं , जो भारत के है और भारत उनका है। जिन्हें गाँधी आज भी अच्छे लगते है। जो शर्मीला को जानते है व इसके लिए कुछ करना चाहते है, उसके समर्थन मे हर उठने वाले हाथ को ताकत देना चाहते है । कलम से ही सही ! यथासंभव जितना हो सके अधिक से अधिक लोगो तक, सरकार के पास और कानून नियंताओं तक यह बात पहुचाई जाए की विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र मे आज भी मानवाधिकार बूटों तले कुचला जा रहा है ,जहाँ मानवाधिकार सशस्त्र बल की रखैल बन आसाम में मुजरा कर रही हों , संगीनों के साए मे जहाँ बचपन घुट रहा हो। हथियारों के दम पर जहा गाँधी जी के बेटियों की अस्मत लूटी जा रही हो। महात्मा बुद्ध के विचार जहाँ हिचकी ले रहा हो । मानवाधिकार का यह खेल गाँधी के उस देश मे पिछले कई दशको से जारी है ................वहां कैसी सरकार.....???? और कौनसा मानवाधिकार ?????? बिगत आठ वर्षो से भारतमाता की एक बेटी उत्तर-पूर्व के लोगो के अस्मिता ,आत्म -सम्मान और गरिमा वापस दिलाने के लिए लगातार संघर्षरत है। क्या हमारा दायित्व नही बनता की उसके हाथ को मज़बूत करें ??? उसे नैतिक शक्ति दे ! मैं देश के उन युवायों से कवि पाश की इन पंक्तियों के साथ आह्वान करता हूँ की .......
सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शान्ति से मर जाना
न होना तड़प का !!
सव सहन कर जाना
सवसे खतरनाक होता हैं
हमारे सपनो का मर जाना
बिलकुल सही है हमें अपने सपनो को मरने नहीं देना है बलिक दूसरो को बुनने में मदद करना है। हम उनसभी से आह्वान करते है की उत्तर-पूर्व में जबतब लागु कर दिए जाने वाले सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून -१९५८ को पूर्णतः हटाने के लिए पिछले आठ सालो से भूख हड़्ताल पर बैठी "इरोम शर्मीला" के समर्थन में आगे आयें। अपने तरीके से विरोध दर्ज कराये। उसे ताकत दे ,उसके गांधीवादी तरीके के पक्ष में खड़े हो सरकार को झूकने को मजबूर करे . पत्र लिखे, नुक्कड़ पर जुटे, गोष्टी करे, शिकायत करे. दोस्तों को बताये की इरोम शर्मीला के साथ क्या हो रहा है??? हमें आपनी आवाज विश्व पटल तक पहुचानीं हैं ताकि महिला अधिकारों का, उनके अस्मिता की ,उनके अधिकारों के हनन को रोका जा सके। मै मानता हूँ की हर समय की अपनी चुनोतियाँ होती है चाहे वह यथार्थ चेतना, जनचेतना, जनांदोलन, जनमानस के लड़ी जा रही कोई लडाई ही क्यो न हो। हर समय अपने विचारो को अपने विचारो से ही मुठभेड़ होती रहती है। आज हम चका-चौंध और भागदौड में इतने मस्त हो गए है की हमें अपने आसपास ,पड़ोस,देश समाज के बारे में सोचने की फुरसत ही नहीं । दो कमरे के फ्लैट में सिमटा आदमी आज स्थितिप्रज्ञ बन कर रह गया है आज सव सुरक्षित जीवन चाहते है लेकिन वाह्य यथार्थ के आतंक ने व्यक्ति को एक आयामी,कमज़ोर और पंगु बना दिया है हम जितने ही अपने आपको सुरक्षित करने का प्रयास करते है उतनी ही असुरक्षा और भय अपने आस पास बुनते रहते है बिना समाज को सुरक्षित किये हम सुरक्षित नहीं रह सकते ....जरुरी है समाज के मुद्दों पर पर कदमताल करना, अतः जागे ,उठे और शर्मीला की ताकत बनें खुद की न सोचकर देश, समाज की सोचे आज स्थिति यह है की
लोग संगमरमर हुए/ह्रदय हुए इस्पात
वर्फ हुई संवेदना ख़तम हुई सब बात।
हमें खुद के स्वभिमान को जगाना है दुष्यंत कुमार के शव्दों में ...
जम गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए .......
आज शर्मीला अकेले अपने दम पर अपने भागीरथी प्रयासों से सरकार को नाको चने चबाने को मजबूर कर दिया है हमें भी चाहिए की उसका हाथ से हाथ और कदम से कदम मिलाकर साथ दे ।मैं एक बार फिर उन नवयुवको से ,छात्रो से आह्वान करता हूँ की जिस तरह सतर के दशक में देश में भूचाल ला दिया था आज दुवारा वो हुंकार भरे .... आज मै उस माँ को भी सलाम करता हूँ जिसने इतनी बहादुर, जांबाज,और दिलेर बेटी पैदा की।
कवि पाश की इन पंक्तियों के साथ की साथी हम लड़ेगे .........हम आपके साथ है .....
हम लडेंगे साथी,अपने स्वभिमान के लिए
जब बन्दूक न हुई तो तलवार होगी
जब तलवार न हुई ,लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ ,लड़ने की जरुरत होगी
हम लडेंगे जबतक
दुनिया में लड़ने की जरुरत बाकि है ....
हम लडेंगे ......???
की लड़ने के बगैर कुछ भी नहीं मिलता
हम लडेंगे की अभी तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेगे अपने सजा कबूलने के लिए
लड़ते हुए मर जाने वालों की याद जिन्दा रखने के लिए
हम लडेंगे .....हम लडेंगे साथी
राकेश पाठक

शनिवार, जून 04, 2011

वृक्ष की कथा-व्यथा

काफी अरसे पहले एक कविता लिखी थी लगा आज शेयर करू 5 जून से बढ़िया और क्या समय हो सकता था इसके लिए ...

आओ आज सुनाता हूँ मैं
अपना दुखड़ा अपनी जुबानी
धरती के वाशिंदों की
लालच लोभ की स्वार्थ कहानी
एक सुबह मै जागा
उठकर बाहर था मै भागा
देखा भीड़-भाड़ खड़ी थी
हाथ में कुल्हाड़ी पड़ी थी
आये थे मुझे काटने
हरियाली सब लुटने
मै बोला चिल्लाया
हाथ जोड़ गिड़गिड़ाया
भैया मत काटो
मुझे मत लूटो
अरे!मै ठहरी बादल की रानी
मै देती वर्षा और पानी
और मुझे तुम लूट रहे हो ?
अंग-अंग को कूट रहे हो
अरे मै जिन्दा तो धरती जिन्दा
हरी भरी धरती वाशिंदा
सोचो काट कर क्या पाओगे ??
क्या प्रदुषण से लड़ पाओगे ???
प्रदुषण की मारी धरती पर
कौन बचेगा जिन्दा ??
मर जायेंगे रहनेवाले
नहीं बचेगा कोई वाशिंदा !!!.
सोचो मै क्या-क्या करता हूँ
मै देता पंक्षियों को प्रश्रय
अन्न जल तुमको देता हूँ
मै देता सांसों को जीवन
ठंढक भी मै पहुँचाता हूँ
बादल का संगी बनकर
वर्षा रानी को बुलबाता हूँ .
सूर्य की हानिकारक किरणों का
आघात ह्रदय पर सहता हूँ.
पर तेरे जीवन पर कभी भी
संकट नहीं आने देता हूँ .
CO2 को सोख-सोख कर
शुद्ध आक्सीजन देता हूँ
वाहनों के निकले धुयें से
बचने का कवच बनाता हूँ
पर तेरे स्वार्थ ने मेरे दिल में
छेड़ बड़ा कर डाला
मेरी ओजोन छतरी बिंध-बिंध कर
प्रदुषण का जहर शरीर में डाला
बोलो कैसे मै जीवन दूंगा ??
तुमसब को पालूंगा कैसे
जब CO2 की अधिकता से
तापमान धरती का बढ़ जायेगा
पिघल जायेंगे सौर ग्लेशियर
धरती पर प्रलय आ जायेगा
बाढ़, सुखाड़, भूखमरी से
बोलो कैसे तुम बच पोयोगे ??
मै कहता हूँ मत काटो
मुझे रहने दो, मुझे जीने दो
कभी बादल काले घुमड़-घुमड़ कर
नदियाँ नाले भर देते थे
पर आज नदियाँ सूख गयी स्त्रोतों से
धरती हो गयी सूखी बंजर
बोलो तुम क्या दोगे अगली पीढ़ी को
निर्जन बंजर जलविहीन जीवन
या तपती धरती जलते उपवन
क्या यही शिला मेरे सेवा का
पेड़ काटकर तुम दोगे ??
अतः मान लो अपनी हार
नहीं करो वृक्षों पर प्रहार .
अगर पेड़ लागाओगे तुम
सुख तुझे मै सब दूंगा
जीवन खुशियों से भर दूंगा
आयों आज ये प्राण करे
वृक्ष नहीं कटने देंगे
धरती के कण-कण आँगन में
हरियाली हम कर देंगे .....

सोमवार, मार्च 21, 2011

होली की हास्य व्यंग कविता

होली की हास्य व्यंग कविता
श्री सीमेंट चौराहे पर
भीड़ जुटी मस्तानो की
जब होली का चंग बजा
चौराहे पर हुरदंग मचा
तब शुक्ला जी पिचकारी उठायें
बीच भीड़ में नज़र आयें
जोशी जी पर तान पिचकारी
धीरे -धीरे कमर लचकाएं
बोले जोशी जी तुम भी आओ
संग-संग ठुमका लगाओ
पिए भांग की मस्ती में
दोनों आ गए गश्ती में
जोशी बोले मै नाचूँगा
मुन्नी बुलाओ तो ठुमका लगाऊंगा
ये सुनकर जे.के.जैन आये
मुन्नी बन वो खूब शर्मायें
तब चंग पर थाप लगी
अंग-अंग पर आग लगी
उधर से संजय जी आयें
थोडा झिझके थोडा मुस्काएं
फिर लगा चढ़ने होली की मस्ती
उतर गए जब सारी सुस्ती
बोले भैया होली खेलो
दिल के बंद दरवाजे खोलो
संजय जी की मस्ती देखकर
शर्मा जी भी कूद पड़े
हाथ गुलाल गालो पे मलकर
मुन्नी से वो गले मिले
तब मुन्नी ने काटी चिकोटी
शर्मा जी की खुल गयी लंगोटी
लिए लंगोटी शर्मा जी भागे
बाप-बाप करते वो आगे
बोले मुन्नी बदमाश बहुत थी
टूट गयी जो आश थी उनकी
फिर वापस शुक्ला जी आये
महफ़िल में खूब रंग जमायें
बोले " हवा" कुछ फगुआ गाओ
छोडो भांग कुछ और पिलाओ
कुछ और के चक्कर में
हवा जी फस गए घनचक्कर में
हवा जी की सारी हवा निकाली
भीड़ ने सारी पैग पी डाली
बोले अब मै क्या करूँगा
रात "शमा" से कैसे निबटूंगा
थप्पड़ तक तो सह लेता हूँ
इस बेलन से कैसे निबटूंगा
एक भी ठीक से पड़ गयी तो
तीन दिन मै उठ न सकूँगा
फिर उन्होंने एक राज खोला
क्यूँ रखते वो दाढ़ी वो बोला
खालो कितना मार बीबी से
दाढ़ी में सव छुप जाता है
छुप जाते है दाग थप्पड़ के
चेहरा खिला-खिला लगता है
नहीं विश्वाश पूछो शर्मा से
बाते कितनी ये गहरी है
बोलो जगमोहन इस बात में
सच्चाई कितनी छुपी है ??
तभी लिए रंगों की लाठी
ठुमक-ठुमक राठी जी आये
कोठारी जी के कोने पर
घुडनृत्य की महफ़िल सजाएँ
बोले मै तो नहीं हटूंगा
पावर लेकर यही रहूँगा
तभी चंग टोली निकल पड़ी
साहेब के बंगले चल पड़ी
अब वहां प्रेम -मनुहार होगा
थोड़ी छेड़-छाड़ थोडा फाग होगा
कुछ अच्छा मिलेगा खाने को
पर खाने पर संकट होगा
भीड़ -भाड़ में स्टाल पर
लोगो का खूब जमघट होगा
लोग भेखे पेट टूट पड़ेंगे
हाथो में वर्तन होगा
फिर मजलिश जमेगी मूर्खो की
मूर्खो का नामकरण होगा
रजनीकांत-विनय वाणी से
मूर्खो का नाम नयन होगा
जो एक साल तक सोचेंगे
गाली दे दे कोसेंगे
ऐसा नाम रखा क्यूँ तुने
इसी बात पर रोयेंगे
फिर ढूंढेंगे संपादक को
और बदला चुन-चुन कर लेंगे
पुरे एक साल तक संपादक
गायब रहेगा पन्नो से
पर अगली होली वो फिर आएगा
नया रूप वो दिखलायेगा
अब तुम भी खिसक लो यहाँ से रोशन
बंगले के पीछे दरवाजे से
ढूंढ़ रहे सब डंडा लेकर
शर्मा,शुक्ला जोशी जी
बहुत निपोरी दातें सबने
अब टूटेगी तेरी बतीशी जी ..

बुधवार, फ़रवरी 09, 2011

मोक्ष नगरी गया जी और फल्गु का किनारा

मै जब भी गया जाता हूँ  मेरा प्रयास होता है फल्गु नदी को देखता चलूँ . इसके खोये एहसास को महसूस करता चलु. दूर तक फैले रेत का निहारना सुखद एहसास से भर देता है और खासकर रेत पर मद्धम-मद्धम चलने का सुख... इसे छू कर महसूसना ऐसा मानो अभी-अभी सीता मैया का कोपभाजन बन भगवन राम से श्रापित फल्गु दतचित शांत हो गयी हो..अब यहाँ रेत ही रेत है.. सिकुड़ती फल्गु की किनारे से धारा रुठती हुई दूर और दूर होती जा रही हों...ये धारा का दूर होना सीता मईया के प्रकोप का असर है या धन लोलुप मानव समुदाय का पर फल्गु की उदासी बहुत कुछ बयाँ कर जाती है ...किनारे के हरे भरे सैकड़ो पेड़ काट दिए गए... कारन चाहे जो हो पर लगता है फल्गु में अब उतना जोश नहीं रह गया की कोई सिद्धार्थ वहां आकर "बुद्ध" बन सके ..हिन्दू धर्मस्थल के रूप में ख्यात विष्णु भगवान की पावन नगरी "गयाजी" ने भले ही सिद्धार्थ को गढ़ा हो, ज्ञान दिया हो पर खुद को अबतक नहीं बदल पाया ...यदा कदा शिव और बुद्ध खुद ही म्यान से निकल कर खड़े  हो जाते है आमने सामने .छोड़े इन सब बातों को मुद्दे की बात करे उस अन्तः सलिला फल्गु की बात करे जो वर्षो से इस गयाजी की आन बान शान रही है.....मुझे कई बार विष्णुपद जाना हुआ है लेकिन संयोग कहे या दुर्भाग्य ..जाना हमेशा किसी मृत आत्मा के दाह संस्कार के लिए ही हुआ ..पावन कहे जानी वाली इस फल्गु में इसके परिसर में सचमुच एक अद्भुत शांति, सिर्फ है नहीं मिलती है और सारी भौतिकता ताक पर रखकर व्यक्ति ऐसा महसूस करता है मानो कोई अलग दुनिया से उसका नाता जुड़ गया हो ..दुनियादारी से विरक्त, लोभ लालच से परे, माया मोह से दूर एक ऐसी दुनिया जहाँ भक्ति.विरक्ति, और अदृश्य शक्ति आप को कुछ अलग होने के भाव से भर देती है ....तब मुझे " ऋषि वाल्मीकि की वह कहानी याद आती है आखिर जिस कुटुंब के लिए चोरी करू वो ही मेरे पाप का भागी बनने को तैयार नहीं तो धन किसके लिए कमाया जाए  ???" यहाँ आने पर इस तरह की सारी बाते अचानक ही जेहन को कुरेदने लगती है  मेरे लिए यहाँ आना पोलिग्राफी टेस्ट से गुजरना ही होता है...अपनी गलतियों, कृत्यों और उनसे जुडी सारी नकारात्मकता आसुओं और मौन के जरिये कब स्वतः निकल जाती है मुझे पता ही नहीं चलता. चारो ओरे मची आप-धापी, रोना धोना, दाह-संस्कार  देखकर मन तो जरुर व्यथित होता है पर लोलुपता, यथार्थता का बोध भी यही होता है......कहा जाता है की विभिन्न प्रेत योनियों से मुक्ति देने वाले गयाजी में आजतक कभी ऐसा नहीं हुआ की फल्गु के श्मशान तट पर, इस माया नगरी में कोई भी दिन बिना शवदाह का गुजरा हो .. यह कोई श्राप है या मुक्ति मोक्ष की लालसा में आत्मा की नश्वरता का कोई पाक सन्देश मै नहीं जनता पर यह जरुर है की कभी बुद्ध को भी आपनी लालसा मिटाने के लिए यहाँ आना पड़ा था...आप भी कभी समय निकलकर जब मन निर्मल करना हो यहाँ आयें ...अद्भुत शांति मिलेगी इस मोक्ष नगरी में........

शुक्रवार, नवंबर 26, 2010

आतंकवाद

आज से दो साल पूर्व आतंकवादियों  ने मुंबई में दहशत की लीलाएं रची थी, धमाके किये थे ....बेगुनाहों का खून बहाया था... आज इसकी दूसरी बरशी है. होटल ताज पर धमाको के जख्म भले ही भर गए हो पर दिलो में आज भी ये ताज़े है ....आज मुंबई में कई सदभावना कार्यकम आयोजित किये है.... शहीदों को नमन किया जा रहा है लेकिन गहरी जख्म खाए  उन बेबाओ ,मजलूमों की दिलो में शांती तब आएगी जब "कसाब" जैसे आतंकारियों का कड़ी सजा दी जाये .....हम भी उन सभी नाम -अनाम शहीदों को अश्रुपूरित नयन से नमन करते है  .........

आतंकवाद
कैसा रिश्ता लिखू कलम से ??
इन आतंक का बन्दूको से
हाहाकार है जग में फैला
बारूद के संदूको से
आज पैदा हो गए है कई रावण
लिए हाथ में दोनाली
मार रहे वेवश बच्चों को
खेल रहे खूनों की होली
लिखू कोई कविता  आतंक पर
या मै भी उठाऊँ बंदूके
या तान सीने पर मै भी लिख दूँ
कविता इन बन्दूको पर ....

अरे ! कैसा रिश्ता लिखूं कलम से
इन बारूद से बन्दूको का .........
बमों के इन धमाकों से
आतंक के काली रातो का ...........
मन में पलते गोलों से
दिल में दहकते शोलो का .........
अरे ! धरती बिछ गयी निर्दोषों से
लथपथ नदियाँ खूनो से
शहर शहर में दहशत है
घर में घुसे "लादेनो" से .......
बन्दूको के ठाएँ- ठाएँ से
टुकड़े हो गए धर्मो के .....
बुझ गए मंदिर के दीपक
"गजनी" के औलादों से ..........
बैठ मंदिर में देख रहे भगवन
पूत कपूत की लीलाएं .......
लीलाओं ने लील ली जाने
लाखो दीन- बेकसूरों की.....
बोलो कैसा रिश्ता लिखू कलम से
इन मजलूमों का बंदूकों से

जब लोकतंत्र के मंदिर में
गोलियों की बौछार हुई
मुंबई के बम धमाकों से
जब धरती लहूलुहान हुई
"ताज " में घुसकर लादेनों ने
जब चमकायी दहशत की तलवारें
तब हमने हाथ मरोड़ी दहशत की
कमर तोड़ी "कसाबो" की
एक-एक को चुनकर मारा   
दोजख के गलियारों तक
बोलो कैसा रिश्ता लिखू कलम से
इन बारूद का बन्दूको से .............
सत्य अहिंसा बापू की अब काम नहीं आएगी
सूरज डूब जायेगा पटल अब शाम नहीं आएगी
आतंकवाद आज फन फैलाएं,डसने को तत्पर हरवक्त
झेल रहा भारत वर्षो से दहशतगर्द का संकट विकट
अब लड़ना होगा, भिड़ना होगा मिलकर इससे निबटना होगा
आतंक के घातक विषधर को अब तो शीघ्र मसलना होगा
फ़ैल न जाये ज़हर जगत में इससे हमें उबरना होगा
बाह मरोड़े मिलकर हमसब "गोरी" के औलादों का
बोलो कैसा रिश्ता लिखू कलम से बारूद से बंदूकों का .......

शनिवार, नवंबर 20, 2010

परछाई

आत्मशून्यता की स्थिति में होने पर कभी कभी भाषा का बहना बड़ा ही सरल हो जाता है मेरे लिए शायद ऐसा ही कुछ हुआ था इस कविता में .......




प्रतिपल प्रतिक्षण
साथ निभाती
संग संग चलती यामिनी
ओ गामिनी
कुछ देर ठहर ,रुक जा
हो जा स्वच्छंद
और कर दे मुक्त मुझे भी
अपने उस बंधन से
जो प्रतिबिम्ब बन मेरा
जकड़ रखी जंजीरों से
जंजीरों की ये कड़ कड़
मुझे तन्हाई की राग भैरवी गाने नहीं देती
ओ मेरी परछाई
छोड़ दे संग संग चलना
जी ले अब अपना जीवन
पी के मधुप्रास....
शांत उदात रात्रि के बीच
टिमटिमाता एक छोटा सा पिंड भी
घोर कालरात्रि में
 तेरे अस्तित्व बोध के लिए काफी है!!!
भले तेरा अस्तित्व मेरे से है ....
मेरे बाह्य रूप आकार को साकार करती
ओ परछाई !!!!
ठहर और उड़ जा....
 हो जा स्वच्छंद .....
अज्ञात
उस अतीव के सीमा से परे
कोसो दूर
जहाँ स्वत्व के खोज में
तथागत ताक रहा गुनगुना रहा
बुधमं शरणम्  गच्छामि
संघम शरणम्  गच्छामि ...........
 

निर्झर गीत

कितना अच्छा होता की आसमान से रंगों की बारिश होती .फुहार बनकर ये रंगीन बूंदों में जीवन के दुःख घुल जाते .खुशियों से अतिरेक नन्ही -नन्ही विभिध रंगों का वरसना बिलकुल हमारे लिए खुशियों का एक नया द्वार खुलने सा होता जहाँ सिर्फ पत्तों की सरसराहट ,चिड़ियों का कलरव ,पहाड़ी झरने का मधुर संगीत और हवाओं का छूना एक अजीब एहसास से भर देता. हमारे दिल को झंकृत सा कर देने वाले ये विविध रंग लाल, पीले, हरे, सफ़ेद हमारे दैनिदनी के जीवन स्त्रोत होते ....सरसराती हवाएं हमारी चेतना के विम्ब बनकर रंगीनियत का एक अद्भुत पट खोलती ...इन रंगीन बारिश का अपने इर्द गिर्द बरसना ही मेरे कवितायों के सृजन का मूल होता है ...............


फैले है इन्द्रधनुष सा आँगन में
ये नदियाँ ,पवन ,गगन, सितारे
समेट तू इनके एहसासों को
गीत नया तू गाता चल........

बादल बन अम्बर को छूलो
कभी बरखा बन धरती को चूमो
इस रुखी सुखी,बंजर धरती को  
हरियाली का गीत सूनाता  चल
गीत नया तू गाता चल .........

सृजन से कोख हरी हो जाये
ऋतूयों के इस स्वयंबर  में
रचे बुने कुछ स्वप्नों का
अविरल अन्दर से बह जाने दे
ख्वाब सुनहरे पूरे हो जाये
गीत ऐसा तू गाता चल ..........

उम्मीदों का पंख फैलाएं
स्वच्छंद थोडा सा उड़ने दो
बुझी-बुझी सी इन पिंडो को
जगमग सूरज सा होने दो
कम्पन हो जाये कण-कण में 
गीत अविरल तू गाता चल .........

सात सुरों से बनी रागिनी 
बनकर अपनी चाँद पूरंजनी
छेड़ जीवन में वैदिक मंत्रो को
राग भैरवी गाता चल
मंत्र यूही गुनगुनाता चल ..........

तू ठहरी खुशबू का झोका
मै पगला भंवरा ठहरा
 तू ठहरी मदमस्त पवन
मै बावला बादल ठहरा
जीवन के इस पतझर को
बूंदों में तू घुल जाने दो
झरनों सा निर्मल निर्झर
गीत नया तू गाता चल ........

मांग रहा खाली दामन में
हे !चाँद थोड़ी शीतल चांदनी दे दे
मिल जाये सांसो को संबल
अमृत गंगा सा पानी दे दे
खिल उठे मन का कोना -कोना
ऐसा गीत नया तू गाता चल
कुछ सरल संगीत सुनाता चल.........
 

शनिवार, अक्टूबर 30, 2010

ग़ज़ल

                    ग़ज़ल
जीवन के फलसफे को पढना नहीं आया
दोस्त तेरे संग संग चलना नहीं  आया

गुजरा था कभी संग बचपने फकीरी में
वक्त बदलते ही पहचानना नहीं आया 

रहमतो की बारिश से तू बन बैठा अमीर
कह गए अबतक जीने का सहुर नहीं आया

इब्तिदा किये थे  सजदा करेंगे साथ साथ
छोड़ गए तनहा कहा रब में डूबना नहीं आया

फरमाबदार बनकर बैठे थे कलतक एक- दुसरे के
नेवला खीच कहते हो दर पे कोई भूखा नहीं आया

लिखता रहा वर्षो तलक तेरी दोस्ती के किस्से
सरेआम कह गए तुझे यारी निभाना नहीं आया

खंजर उतार सिने में लहूलुहान कर गए
बहते इन अश्को को रोकना नहीं आया

कुचले है सर राम रहीम के इस कदर
शेखेहरम बन बैठकर रोना नहीं आया 

दरिंदगी ने ने सुखा दिए अश्क मेरे इसकदर
की मुजस्समा बन बैठ मुझे हँसना नहीं आया

रोती रही राते  चीखती रही दीवारें
धमाकों की आवाज में सोना नहीं आया
  
कभी सहन में जमती रही थी महफिले रात भर
दरबदर हो गए "राकेश " से कोई मिलने नहीं आया

लिखता रहा आजीवन सभी धर्मो के मुखड़े
कह गए दोस्ती का ग़ज़ल लिखने नहीं आया

 कायनात से रुखसती का इसरार किये बैठे है
दोस्त तेरे बिना अबतक मरना नहीं आया

शनिवार, अक्टूबर 23, 2010

.टटोलती यादें

कविता मेरे मौन की अभिव्यक्ति है. विचारो की शक्ति है. मेरे अन्दर विचारो के पुतले जन्म लेते रहते है .कुछ अपने भ्रूण अवस्था में ही दम तोड़ इहलीला को प्राप्त हो जाते है तो कुछ शैशवा अवस्था में ही मेरे विचारो से विदा ले लेते है. पुतले के जन्म के इस संघर्षों में कुछ विचार जदोजहद करके मेरे से यदाकदा कुछ लिखवा पाने  के स्रोत्र बन जाते है....और चंद शब्द -सृजन के तब अभिव्यक्ति बन, कविता का रूप धर लेते है, जब विचारों का आत्मसंघर्ष पुतलो के रूप में नृत्य-लीला कर अभिव्यक्ति का नट-भैरव करने लगता है....कविता मेरे इर्द गिर्द फैले जड़ता से भी बुनी जा सकती है तो कभी समाज की विसंगतियां इसके कारक बन, तेवर के कुछ चीजे लिखवा पाने में सफल हो जाते है..
अकेलेपन का साथी होना भी मेरे सृजन की नींव है...कविता कभी रात में मुझे उठाकर झंझोरती हुई कहती है लिखो मुझे ...बुनो रिश्तो का तारतम्य भी सृजन का गवाह बन जाता है यह कविता भी ऐसी ही लिखी गयी थी खुद को टटोलने का एक विखरा
प्रयास .............


हम अक्सर आईने के
सामने खड़े होकर
खुद को टटोलते है, ढूंढते है
देखते है, अपना अतीत
और ऐसे, मानो
कोई खोयी हुई चीजे
पुनः प्राप्त होने को है
हम नित्य कुछ खोते है
और ढूंढते भी
ताकि समय की गर्द में
हम भूल न जाये की
हमें याद क्या करना था ?

नयी चीजे प्रवेश करती है
पुराने को धकियाते हुए
और पुरानी होती हुई
धूल का एक गुबार
इसे अदृश्य सा कर देता है
और हम फिर भूलने लगते है !!!
की अचानक ही
सुनहरी यादों का झोंका
गर्द गुबार को उड़ाते हुए
वक्त को हाथ में कैद कर देता है
और हमें याद हो आता है
जज्बातों को समेटे...
अतल समुद्र में धीरे धीरे
सूर्यास्त के साथ डूब जाना ?????

गुरुवार, अक्टूबर 21, 2010

शूली पर भगवान

आस पास व्यापत कई चीजे आहत करते रहती है ये व्यथा कविता बनकर पन्नो पर उतर आती है

शूली पर भगवान
कुछ गाओं गुनगुनाओं एक कविता सुनाओ
देश पर ,समाज पर,
लाश ,सरकटी के फैले व्यापार पर
सत्ता गहते लोगो के लोलुप अधिकार पर या
राजनीती में फैले---डूबे आकंठ भ्रष्टाचार पर .......
सुनाओ किसने उतारी ये गाँधी जी की धोती
चश्मे और डंडे की कैसी लगी बोली ??
खादी और खाकी के रहते
नंगे होते बापू पर
बोलो तुम कुछ कह पाओगे???
या गोडसे बनकर के तुम भी बन्दूक चलाओगे????

कलम भी हुई कमीन अब
लोकतंत्र हुई गमगीन अब
बंधक बन गए लोकतंत्र पर
क्या कविता कोई गाओगे ???
या मेज़ थपथपाकर संसद में
कौरव की सरकार बनौगे ???
संसद में ताकत के दम पर
जीत रहे बेईमान है ....
नाज़ नाक को ताक पर रखकर
बेच रहे हिंदुस्तान है ....
इन चोरो को नंगा कर दे
क्या ऐसी कविता गाओउगे ????
आज गांवों में फैला सन्नाटा
दुश्मन बनकर भाई ने लुटा
जात धर्म के परदे में
हमने राम -रहीम को लुटा
जनतंत्र है बनी बेचारन
बंधक बनकर खादी की .
बंधन से ये मुक्त हो जाये
क्या ऐसी कविता गाओगे ????
हिंसा के दलदल में डूबा
लोकतंत्र शर्मशार है
व्यभिचारो की मंडी में
नित होता नया व्यापार है
कब तक युही लटकाओगे ??
शूली पर भगवान को........
कलयुग का रावण मर जाये
क्या ऐसी कविता गौओगे ????
नेताओं के इस नगरी में
धूर्तो का बोलबाला है
कपटी काटे फसल झूठ की
कंस यहाँ रखवाला है
मिले कंस से त्राण हमें
क्या ऐसी कविता गौओगे ?????
क्या ऐसी कविता सुनौगे ?????

गुरुवार, सितंबर 02, 2010

कुछ अनगढ़ी शब्द चित्र संस्मरण

कुछ भी लिखना अगर इतना आसान होता.... तो पता नहीं कितना कुछ अपने, इर्द -गिर्द फैले वस्तुयों से, संबंधो से, नाता जोड़ लिख लेता और हम सरल ही सही कुछ कह जाते ...मगर ऐसा मेरे साथ नहीं हो पा रहा था. लगा लिखना मेरे से कतई संभव नहीं........(ऐसे आज भी यही सोचता हूँ ...) कविता मेरे लिए वैसी ही थी जैसे उफनती धारों में बिना पतवार दूर समुद्र का सफ़र करना ..या त्वरणहीन उपत्कायों से धरती की परिक्रमा.... पर जब आयाम बनते है बिम्ब खुद ही छंद बन जाते है और क्षितिज से सृजन की लौं रोशन होने लगती है... कवितायेँ कभी ख़तम नहीं होती यह जीवनपर्यंत गायी जाने वाली राग -रागनियाँ है जब भी हम अपने अन्दर प्रकृति के सुरों की मद्धम सी भी ध्वनि महसूस करते है राग की तरंगे अपना रास्ता ढूंढ़ लेते है और हम कुछ अनूठा अद्भुत रच पाते है अनु की अन्दर लेखको की भाषा चेतना सी पता नहीं कितनी राग तरंगे हमेशा बिम्बित होते रहते है......उसी के प्रेरणा से कुछ दिनों पहले उसी के लिए कुछ पंक्तियाँ लिखी थी ........

कहाँ से लाती हो कविता ?
कैसे बुनते हो शब्द!
प्रकृति में फैले इन्द्रधनुषी रंगों की तरह,
कहाँ से आते है ये भाव ?
आसमान में तैरते शब्दों से
कैसे जोड़ लेते हो रिश्ते ??
मै भी तो जानू,
कैसे लिख ली जाती है कविता ?
कुछ "अनुपम" कुछ " नवीन"
जल में फैले तरंगो की तरह
कहाँ से आते है श्रद्धा के ये चंद शब्द
बिम्बों में कहाँ से झांकता है,
सृजन की अकूत संभावनाओं का चाँद
कैसे नापते हो ??
शब्दों की गहराई से उमगते सूर्य को, उसके संताप को
कौन देता है छंदों में जीने की प्रेरणा ??
खाली रिश्तो के इस बियाबान में
कैसे काटते हो भाव की फसल
"श्रधा" की ग़ज़ल
विचारो की पौध
कुछ "सत्य" कुछ "सुशील"

अनु खूब लिखती है और मुझे उसमे अद्भुत, अनंत संभावनाएं दिखती है अभी मै उसका ब्लॉग पढ़ रहा था . मै तो उस ब्लॉग के अनुपम यात्रा के यात्री के रूप में अपना सफ़र शुरू कर दिया है..... क्या आप भी जुड़ना चाहेंगे .......(www.sushilanu.blogspot.com)
सबसे पहले तो बधाई की हम भी एक अद्भुत अनुपम यात्रा के यात्री के रूप में शामिल है ........ शुरुआत शानदार हुई है और हम चाहेंगे की इस अनुपम यात्रा के विभिन्न बिम्बों के हम भी साक्षी बने.... अनु तुम्हारी ये सारी कविताये ऐसी है जैसे बारिश के बूंदों का मद्धिम संगीत या चिड़ियों का मधुरव कलरव ....फूलो की खुशबू को अंतरतम से महसूस करना या झरनों का कलकल स्वर .........तुम्हारी कविताओ में प्रकृति खूब बोलती है ..पंक्तियों का सृजन भाव या तो वेदना होती है या प्रेरणा.... जो जितना ज्यादा भावुक होता है वो उतना ही ज्यादा कुछ व्यक्तय कर पाता है....रोना भी एक सृजन है और यह आत्ममुग्धता की मौनता को तोड़ता है चाहे वह व्यथा हो, उन्माद हो, गुस्सा हो, प्रेम हो, कुंठा हो ...अपना व्यक्त होने का रास्ता बना ही लेता है ...तुम इतना सरल तरीके से जो इतना अद्भुत कुछ कह जाती हो यही तो अनुपम है ..... तुम्हारा इंसान बनाने का यह प्रयास सराहनीय है .........न तो पर्वत को नदी की हत्या करनी चाहिए न हमें अपने संस्कारो की .... जीवन में संस्कारपरक शिक्षा जब से अर्थपरक शिक्षाके रूप में तब्दील हुआ है...नैतिकता समाप्तप्राय हो गयी है... और इसी के आभाव में हम धर्म सहिष्णु भी न रहे ... इंसान बनाने की पाठशाला लक्ष्मी के आश्रय गृह हो गए और सरस्वती के उपासकों की वैचारिक हत्या इन्ही नदी और पर्वत के समान कर दी गए तब हम कैसे हो सकते है इंसान ...........
रही बात एहसास की तो
इन्ही के सहारे तो जीवन चलता है.......
ये हर पल हर वक्त निकलता है
कभी आँखों से तो कभी शब्दों के रूप में .......
यही आँखों की पानी,
है एहसासों की जिंदगानी..

बहन तुम्हारी सारी कवितायेँ पढ़ी, गुनी ... ज्यादा बोलना या लिखना भी अतिश्योक्ति सी लगेगी ..और न बोलना हमारी जड़ता....कोई इसे पढ़कर अपनी जड़ता तोड़ने को वाध्य हो ही जायेगा ...
सचमुच कितनी सही बात लिखी हो इस कविता में "हमारे बीच एक कविता बहती है...." संवेदनायों के धरातल पर कोई भी आ कर रो लेगा ...द्रवित हो जायेगा फिर कैसे संभव है की आँखे नम न हो.....बहुत सुन्दर .... एक कविता बहती तो सब में है पर छंदों में कहा कोई जी पाता है ....छंदों के संभावनाओ को तो कवियों का चन्दन वन कब ही पी चूका है ये हमारे बस की बात नहीं.....कविता की सरिता से एकाकार होना हम तो इसी अनंत अनुपम यात्रा में सीख रहे है...........संभावनाओ का आकाश कही न कही मौजूद जरुर है.... तो हम भी बहा लेगे कविता की सरिता ...............
काफी वर्षो बाद इस से मिलना हुआ फ़ोन पर बाते भी हुई ..... रक्षाबंधन पर उसने कवितायेँ लिखी काफी भावनापूर्ण ..आँखें नम कर देने वाली ..आप भी पढ़े ...........

भावों से परिपूर्ण भाव रूप में ही
एक धागा भेजा है !
जीवन के कई सांझ-सवेरों का
अनुगूंज शब्दों में सहेजा है !!
इन्ही शब्द विम्बों में
अपनी राखी...
पा लेना भैया!
हमारी दूरी
पाट ली जाएगी...
चल पड़ी है जो भावों की नैया!
अविचल चलते राहों पर
कवच है शुभकामनाओं का...
तेरे भीतर विराजता- स्वयं शिव है तेरा खेवैया!
सबकुछ शुद्ध अटल है तो
पहुंचेगा ज़रूर तुम तक...
इतना कहते हुए अब तो आँखों से बह चली है गंगा मैया!
अब विराम देती हूँ अपनी वाणी को
सहेज लेना जो इस अकिंचन ने भेजा है !
जीवन के कई सांझ-सवेरों का
अनुगूंज शब्दों में सहेजा है !!

इस कविता को पढने के बाद आँखे नम न हो यह तो हो ही नहीं सकता था सच कहू तो राखी के साथ शब्दों की ऐसी गरिमा दी गयीं थी की स्वतः ही कुछ बह चला ..प्रत्त्युतर शायद इसी भावनायों की सम्प्रेषनियता का अप्रतिम उत्कर्ष था.........

बहना तुने जो धागा भेजा
वह अगणित भाव लपेटे है
रिश्तो की पतली डोर लगे
पर संबंधों का सार समेटे है.

आँखों से अविरल निकल रही है
भावो की निर्मल गंगा
नयन हमारे अश्रुपूरित है
तू ठहरी देवी, दुर्गा, माँ अंबा.

जटाजूट भी हाथ पसारे
कह रहा इसे बहने दो
अक्षत रोली वन चन्दन है यह
पावन अमृत बहन अनुपमा का

देने को तो बहुत कुछ है
पर सब कुछ तूछ्य तेरे आगे
मेरा सबकुछ तेरा है
भले पतले हो ये धागे

इन पतले स्नेह के धागे में
बंधन है जन्म-जन्मान्तर तक
आज कर्ण खड़ा है हाथ खोले
देने को कल्प मवन्तर तक

यह तुम्हारा ही देन है मै अकिचन भी कुछ लिख पाया
बहुत बहुत शुक्रिया बहन मुझे कविता से जोड़ने के लिए ..
ढेर सारी ज्ञान चाक्षुष खोलने के लिए....

बुधवार, जुलाई 28, 2010

चांदनी चली चार कदम, धुप चली मिलो तक

दिसंबर के अंत में लिखी गयी यह कविता इंटर सीमेंट कल्चरल प्रतियोगिता के लिए लिखी गयी कविता का विषय (शीर्षक ही इसका विषय था ) पूर्व निर्धारित था .......समय सीमा के अन्दर न पढ़ पाने के कारण इसे सेकण्ड स्थान मिला था अनंत संभावनायों वाली बहन अनुपमा के प्रेरणा से आज आपके सामने ..........

चांदनी चली चार कदम, धुप चली मिलो तक
सुख नहीं देता है सुख, दुःख चले सालो तक
जीवन की परिपाटी यही, रेंगती रहती है निशदिन
काँटों और फूलो को देखो, जीवन सहेजता है दिन -दिन
यह जीवन क्या! कैसा जीवन ? जिसमे कांटे फूल न हो
सरक नहीं सकती है सरिता, जिसमे दोनों कूल न हो
सरिता सरकती है पर, तालाब टिका सालो तक ....
चांदनी चली चार कदम, धुप चली.............

चांदनी आती है, मुस्काती है, कुछ ही दिन
यौवन का ज्वार भी, सरकता है कुछ ही दिन
आता है बुढ़ापा, ठहर जाता है सालो तक
नसे शिथिल हो जाती है, पक जाता है बालो तक
क्या कहे ! किस से कहे ! यह रिसता रहता जीने तक
चांदनी चली चार कदम, धुप चली.............

जीवन की यह पगडण्डी, टेढ़ी मेढ़ी चलती है
राही चलता रहता है, बेडी जकड लेती है
अरे कौन सुनता है ? किसको सुनाये दुखड़ा ?
हँसता है कुछ ही दिन ,जीवन भर रोता मुखड़ा
हर्ष हरसाता कुछ ही दिन, बिषाद रहे सालो तक
चांदनी चली चार कदम, धुप चली...........

आती है बहार, बाग-बाग खिल उठते है
पवन की मनुहार पा, फूल मुस्क उठते है
भवर सूंघ गंध को ,गुंजन कर उठता है
तितलियाँ थिरकती है, पराग उमड़ उठता है
बसंत रहता कुछ ही दिन, पतझड़ झड़ता सालो तक
चांदनी चली चार कदम, धुप चली...........

पावस जब जब आता है, नदी नाल उमड़ पड़ते है
काली काली मेघ को देखो, कैसे उमड़ घुमड़ पड़ते है
तट पर के गाँव-गाँव, सिहर उठते है क्षण-क्षण में
कहर कहर मच जाती है, धरती के इस कण- कण में
आस क्षणभंगुर है, साँस चले सालो तक
चांदनी चली चार कदम, धुप चली...........

चांदनी चटकती चुटकी भर, धुप सदा खिलती है
शीतल बयार क्षणिक, उमस सदा रहती है
बाढ़ आती है तो, सब कुछ बहा ले जाती है
पर मंद-मंद धार सदा, प्यास बुझा जाती है
आशा क्षणभंगुर है, निराशा चले सालो तक
चांदनी चली चार कदम, धुप चली...........

आंधी आयगी ही कुछ क्षणों के लिए
आफत लाएगी ही धुल कणों के लिए
चांदनी छिटकेगी, धूप आएगी ही
सृष्टी की ये सतता है, अपना कर्तव्य दिखाएगी ही
सृष्टी का यह क्रम, चलेगा सालो-सालो तक
चांदनी चली चार कदम, धुप चली...........

चंचल चित चहकता है चांदनी के चम-चम में
कोयल की कुहू-कुहू, गूंजती है वन-वन में
वही चित्त चरक जाता है, सूरज की धूप में
बादुर दहल जाता है, जल विहीन कूप में
यही क्रम चालू रहता है, जीवन के धरातल पर
चांदनी चली चार कदम, धुप चली...........

मंगलवार, जुलाई 20, 2010

नक्सलियों की लिमिटेड कम्पनी

जिस जनपक्षधारिता को लेकर नक्सलपंथ का गठन हुआ था आज उससे संघटन के लोग खुद विमुख हो गए है. अब नक्सल गरीबो के हक़ हुकुक के लिए आवाज उठाने वाला संघटन न रहकर एक लिमिटेड कम्पनी बन गयी है जिसका टर्न ओवर कई हज़ार करोड़ रूपये से ज्यादा है..न तो अब जमींदार रहे और न ही दलितों को दास बनाकर उनका शोषण करने वाले भूपति शायद यही वजह है की नक्सली भी अपने कार्यशैली में काफी बदलाव ला चूके है. जुल्म और बदले की भावना उतना बड़ा घटक नहीं रहा इस संघटन से जुड़ने का..बिहार में रोजगार के अभाव में लोग नक्सली संघटन से जुड़ रहे है..नक्सली बतौर वेतन का भुगतान कर रहे है अपने कामरेडों को.और कामरेड भी पैसे, रोजगार और पॉवर के चक्कर में बन्दूक उठाने को तैयार है कल ही जनसत्ता में नक्सली संघटन पर लम्बी रिपोर्ट सुरेन्द्र किशोर जी की पढ़ी. कई मुद्दे और कारण अब अप्रासंगिक लगे. बिहार के औरंगाबाद की स्थिति भी काफी बदल चुकी है मध्य बिहार में अब नक्सलियों का एकमात्र उदेश्य पैसा कमाना रह गया है नीति सिद्दांत जैसी कोई चीज नहीं रह गयी. शोषण का तरीका भी बदल गया है जाती बहुलता वाले क्षेत्र में खुद नक्सली संघटन के लोग वही करते है जो उनके इर्द-गिर्द रहने वाले उन तथाकथित नेतायों को बताते है.नक्सलियों ने खुद एक शोषक वर्ग खड़ा कर दिया है जो सचमुच के "जन " का शोषक ,सामंती बन बैठा है. संघटन से जुड़ना आज फायदे की बात हो गयी है खाटी कमाई का जरिया और घर बैठे रोजगार . आज ही खबर पढ़ी की नक्सल के खिलाफ राज्य साझा अभियान चलाएंगे तब कई बाते इस से जुडी सामने आने लगी लगा आवाज दबाकर और बन्दूक के दम पर इसे रोका नहीं जा सकता है आज नक्सलवाद देश के सबसे बड़ी आंतरिक समस्या के रूप में सामने है. पूरे देश में इससे निबटने की सारी उपायों पर चर्चाएँ चल रही है लेकिन मुद्दा घूम फिर कर जमीनी विवाद तथा इसका सही वितरण न होना माना जा रहा है ..हो सकता है छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भूमि की असमानता इसके पनपने का एक कारण हो लेकिन बिहार जैसे राज्यों में यह अब सही नहीं रह गया ........जब दो दशक पूर्व डी.वन्दोपाध्याय ने नक्सलवाद का मुख्य कारण जमीनों के असमान वितरण को माना था तब बिलकुल सही था आज स्थितिया बदल चुकी है .अभी हाल ही में मै बिहार गया था एक पखवारे की छुट्टी पर .......मै बताता चलु की मेरा घर गया जिले के सुदूरवर्ती प्रखंड इमामगंज में है ....घोर नक्सल प्रभावित क्षेत्र जहा आज भी नक्सलियों की ही सरकार चलती है मै इन क्षेत्रो में एक स्टिंगर के रूप में करीब छः सालो तक काम भी किया हूँ .....और नक्सलियों पर बिशेष रिपोर्टिंग भी. कई जन अदालतों में भी शामिल हुआ ...... इनके खिलाफ रिपोर्टिंग के कारण कई बार हाथ -पावँ काटने की धमकियाँ भी मिली .......मै कई वैसी चीजो का खुलासा किया था जो कही से भी जन सरोकार से जुड़ा हुआ नहीं था ........मैंने नक्सल संघटन से जुड़े कई ऐसे लोगो की सूची प्रकाशित की थी जो संघटन से जुड़ने के बाद लखपति-भूमिपति हो गए, इसमें संघटन के करीब डेढ़ दर्ज़न शीर्ष नेतायों का नाम था .........आज की स्थिति यह है की लोग संघटन से सिर्फ पैसो के लिए जुड़ रहे है .....उपभोक्तावादी दौर में लोगो के महत्वकांक्षा इतनी बढ़ गयी है की आज का युवा सिर्फ पैसा चाहता है और यही पैसे पाने की लालसा का फायदा ये नक्सली उठा रहे है संघटन से जुड़ने वाले लोगो को ४०००/- से लेकर २५०००/- तक बतौर मेहनताना दिया जा रहा है और ताकत ,अहम्, गुरुर तथाकथित सम्मान अलग मिल रहा है सोअलग ......... इनसे जुड़ने का दूसरा कारण खासकर कमजोर वर्गों का बहुत समय से दबाया जाना भी है .....आज भी बदले की भावना से लोग संघटन से जुड़े है ...... तथा जुड़ रहे है.. ग्रामीण अंचलो में नक्सलियों की अदालत बैठती है जिसमे सैकड़ो मुद्दे जो बिशेष्कर जमीनी विवाद से जुड़े होते है निबटाया जाता है ......
बिहार सरकार मान रही है की नक्सली घटनाओ में कमी इसके द्वारा की जा रही उपायों से हो रही है जो कुछ हद तक तो सही हो सकता है पूरी तरह से नहीं.....
हाल ही में मेरी मुलाकात नक्सली गतिविधियों से जुड़े एक नेता से हो रही थी उसने जो सच्चाई बताई वो हैरत अंगेज थी .....अब माओवाद के विचार सिर्फ बात करने की रह गयी है ....अब मूल मुद्दा लेवी बसुलना ,सरकारी योजनाओ का फायदा संघटन से जुड़े लोगो को दिलवाना रह गया है .आज हरेक कस्वे ,गाँव बाज़ार में इन्होने अपना नेटवर्क फैला रखा है सूचना देने के बदले नक्सली इन युवाओं को सरकारी ठीकेदारी, बीडी पता का ठेका ,बस स्टैंड,बाज़ार का ठेका ,जंगली सामानों लकड़ियों की तस्करी, लेवी बसूलने जैसे कामो के जरिये रोजगार दे रखी है .......बताया जाता है की बिहार सरकार के सालाना बज़ट से ज्यादा तो इनका बज़ट है एक अनुमान के मुताबिक आज इनके पास ५००००/-करोड़ से ज्यादा का नगदी प्रवाह है ........यह अब माओवादी कमुनिस्ट पार्टी अब जन सरोकार से सम्बन्ध रखने वाली पार्टी न रहकर लिमेटेड कंपनी बन चुकी है
संघटन से जुड़ने वाला हरेक व्यक्ति व उसका परिवार तब तक संघटन के वेलफेयर का फायदा लेता है जबतक वह संघटन से जुड़ा रहता है ...इस संघटन से जुड़े कई लोगो के बच्चे उच्च स्तरीय अंग्रेजी स्कूलों में पढाई कर रहे है .......उन सारी चीजो का उपभोग कर रहे है जिसे फिजूलखर्ची बोला जाता है ........संघटन के एक बड़े नेता एवं एक शीर्ष नक्सल नेत्री से शादी के दरम्यान वो सब किया गया जो संघटन के नीतियों के विरुद्ध था ....दर्जनों गाड़ियाँ और हजारो को खाना खिलाने की व्यवस्था की गयी थी इसी तरह संघटन से जुड़े एक नेता के गृहप्रवेश पर भी बहुबलिता का सारा परिचय दिया गया था ये सब छोटे छोटे वाकये है जिसे मैंने यहाँ जिक्र किया है जो यह बतलाता है की संघटन एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी की तरह काम कर रही है .एक वाकया मुझे आज भी याद है दलित तबके का एक व्यक्ति मेरे घर आया और कहा की सरकार से भूदान में हम ४२ दलित लोगो को ४२ कट्ठा जमीन का परचा दिया गया था जिसपर आज नक्सलियों का खुला संघटन किसान कमिटी का कब्ज़ा है...जिससे जुड़े हुए सभी लोग पुर्व सरकार के समर्थक रहे एक जाती विशेष से है ..और हम भूखो मर रहे है जब मैंने इसे अखबार में छापा तो खाफी हंगामा हुआ और दलितों को जमीन वापस दी गयी .ये सारी बाते यहाँ इसलिए कही जा रही है ताकि सच्चाई सामने आ सके. आज सरकारी कारिंदे खुद मिले है इन लोगो के साथ .....पुलिस खुद समझोता करती है की हमारे क्षेत्र में अपराध नहीं करो हम तुम्हारे आदमियों को नहीं पकड़ेगे .......और इसे ही सरकार नक्सल गतिविधियों का कम होना मानती है . महीने में सात से दस दिन तो नक्सली अपने प्रभाव वाले क्षेत्रो में जब चाहते है पूरा बाज़ार बंदकरवा देते है .....पिछले साल ही केताकी औरंगावाद के पास नक्सलियों ने पूरे एक महीने तक एक बाज़ार को बंद करवा रखा था ............क्या कहेगे इसे आप ........?????
नक्सलियों ने लोगो की पास धन दिया है सम्पनता दी है इच्छाएं पूरी करने को धन दे रही है और आप क्या दे रहे उसे आज़ादी के छः दशक में उसे जीने की आज़ादी तो दे ही नहीं सके .....भूख से मरना आज भी जारी है .......गरीबो की एक बड़ी तादाद आपका मुह चिढ़ा रही है ........अकाल और बाढ़ पर आज इतने सालो बाद भी अंकुश नहीं लगा सके, सुदूरवर्ती क्षेत्रो में चिकित्सा के अभाव में आज भी लोग दम तोड़ रहे है और आप कहते है हम नक्सलवाद का नियंत्रण कर लेंगे .....??? नक्सलियों से मिले पैसे और रोजगार के दम पर खुद ही जीना सिख रहे है लोग आज लिमिटेड कम्पनी की तरह हजारो लोगो के परिवार का भरण पोषण इन नक्सलियों के द्वारा हो रहा है. इनके लिए मसीहा है ये नक्सली ..
क्या सरकार इन लोगो को वो रोजगार मुहैया करवा पायेगी जो नक्सली संघटन कर रहे है ....... ????
सिर्फ खेती पर आश्रित रहने वाले लोगो के पास चार महीने से ज्यादा का काम नहीं संघटन से जुड़ना इनकी मजबूरी है आप इन्हें रोजगार दे सुविधा दे...........परिणाम आपके सामने आ जायेगा. सिर्फ कागज़ पर आंकड़ो के खेल से गतिविधियों पर नियंत्रण नहीं हो सकता और न ही अर्धसैनिक बलों के दम पर .......