रविवार, सितंबर 10, 2017

रोज सुबह

हर शाम ओढ़ लेता हूँ थोड़ी उदासी..
और देखता रहता हूँ दूर जाता हुआ सूर्य..
शाम के उस धुंधलके में रोज एक सूरज डूबता है..
रोज विलीन होती है अवा में बिखरी हुई रोशनी..
रोज वहां से लौटती है गाती हुई चिड़ियां..
रोज हारकर लौटते है कई थके हुए पांव
रोज हारता हूँ खुद से खुद का ही मुकदमा..
शाम के सिरहाने बजती है रोज मातमी धुन..
कई राहगीर रोज रह जाते है मंजिल से दूर..
कोई रोज पुकारता है शाम को पश्चिम में..
शायद लोग रोज जाते है थके हुए पांव लिए ईश्वर के पास...
ईश्वर उन्हें पूरी रात थपकी दे सुला देता है..
लोरियों में डूबे हुए वही लोग
मुस्कुराते हुए सुबह लौट आते हैं
अपनी उसी दुनिया में वापस..
रख कर सारी तकलीफें, थकान, परेशानियां..
उन्हें पुनश्च वापस भेज देता है एक नए सूर्य के साथ ईश्वर..
यह सूर्योदय रोज होता है..
क्योंकि हारना ही होता है हमारी तकलीफों को रोज सुबह-सुबह..
और अहले सुबह
फिर अपनी उम्मीदें
अलगनी से उतार
एक सूर्य भर लेता हूँ,
अपने अंदर,
रोज ही....

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