ओस की बूंदों की तरह
तर्पित थे शब्द..
हर उच्चारण और ध्वनि नाद के साथ
मंत्र भी स्खलित हो जाते थे वहां...
शाम के धुंधलके में उच्चाटित कर
रोज कोई बुदबुदा जाता था सिद्ध मंत्र..
रात के बियावान में
अदृश्य भी प्रकट हो जाते थे..
तब इन धुन्ध भरी रातों में आशंकाओं के बीच भी
शांत गुजर जाती रही थी रक्तसार ब्रह्मपुत्र मौन हो
रक्त के माहवारी से सनी कामख्या भी..
वस्त्र उतारती थी वहां...
नदियां भी हया में डूबे उन सब स्त्रियों का लिहाज करती थी ...
प्रकृति भी छुपा लेती थी अपने ओड़ में..
रोशनी की पंखुड़ियां भी बादल से ओट ले अंगवस्त्र
पर आज....?
व्यक्ति हमेशा खुद से लड़ता रहता है अपने विचारो से लड़ते, उलझते कभी खुद का खुद से ही टकराव की स्थिति में पाता है वो हमेशा चाहता है खुद से खुद को आजाद करना.....विचारो को नित्य संघर्ष काले पीले अक्षरों के रूप में.... इस इडियट्स के नए ठिकाने पर मिलेगे...
रविवार, सितंबर 10, 2017
कामाख्या
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