रविवार, सितंबर 10, 2017

कामाख्या

ओस की बूंदों की तरह
तर्पित थे शब्द..
हर उच्चारण और ध्वनि नाद के साथ
मंत्र भी स्खलित हो जाते थे वहां...
शाम के धुंधलके में उच्चाटित कर
रोज कोई बुदबुदा जाता था सिद्ध मंत्र..
रात के बियावान में
अदृश्य भी प्रकट हो जाते थे..
तब इन धुन्ध भरी रातों में आशंकाओं के बीच भी
शांत गुजर जाती रही थी रक्तसार ब्रह्मपुत्र मौन हो
रक्त के माहवारी से सनी कामख्या भी..
वस्त्र उतारती थी वहां...
नदियां भी हया में डूबे उन सब स्त्रियों का लिहाज करती थी ...
प्रकृति भी छुपा लेती थी अपने ओड़ में..
रोशनी की पंखुड़ियां भी बादल से ओट ले अंगवस्त्र
पर आज....?




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